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#कृपया ध्यान से पुरा पोष्ट पड़े


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श्रीरामकथा के अभूतपूर्व प्रवंचक मुरारिदास, जिसे उसके अज्ञानान्धकार में फंसे भक्तजन मोरारी बापू भी कहते हैं, ने कुछ काल से निरंतर व्यासपीठ का अनधिकृत प्रयोग करते हुए खुले रूप से धर्मद्रोह की शृंखला प्रारम्भ कर दी है। पहले तो कथामंच से अली मौला, या हुसैन के नारे लगवाना, छाती पीट कर मुहर्रम का मातम मनाना, और फिर करुणानिधान श्रीराम जी के स्थान पर विश्व भर के सर्वाधिक आतंकवादी घटनाओं के जिम्मेदार समुदाय के प्रवर्तक की कल्पित एवं प्रायोजित करुणा का बखान करने लगना यह दिखाता है कि मुरारिदास या तो गम्भीर रूप से विक्षिप्त है अथवा विधर्मियों के द्वारा खड़ा किया गया एक कुशल धूर्त। कुछ समय पहले तो इसके मंच से मुजरा भी करवाये जाने का वीडियो प्रसिद्ध हुआ था। जिस शास्त्र की रक्षा के लिए श्रीरामावतार होता है, जिस शास्त्र के विरुद्ध कृत्य करने वाले की भर्त्सना श्रीकृष्ण भगवान् करते हैं, यह व्यक्ति उन्हीं देवस्तुत्य शास्त्रों से भी स्वयं को ऊपर मानता हुआ उनमें संशोधन की बात करता है। सनातन धर्म के किस ग्रंथ की किस उक्ति के कारण विश्व में कितने बम फूटे, कितने अपहरण और बलात्कार हुए, यह तो ज्ञात नहीं, किन्तु जिस किताब के अनुयायियों ने किताब पढ़ पढ़कर बम फोड़े, और फोड़ रहे हैं, अपने मत को न मानने वाले लोगों का अपहरण और बलात्कार कर रहे हैं, उस किताब में संशोधन करने की बात एक बार भी इस धूर्त के मुख से नहीं निकलती है। "शास्त्रों में संशोधन, या हुसैन से गठजोड़ समय की मांग है" ऐसा कहने वाला यह व्यक्ति सनातनी समाज को बताए कि महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, महारानी अहल्याबाई आदि ने अपने विकटतम संघर्ष के समय, धर्मरक्षा में कष्ट क्यों भोगा ? क्योंकि नहीं उसी समय गठजोड़ एवं संशोधन कर दिया ? हमारे किस ग्रंथ में लिखा है कि श्रावण बीतने पर मुसलमानों को मारो, अथवा कार्तिक बीतने पर ईसाईयों पर घात करो ? बल्कि उनकी ही किताबों में लिखा है कि अमुक महीना बीत जाए तो काफिरों को मार दो। फिर संशोधन किसमें होना चाहिए ? "समय की मांग है" कहने वाला यह पाखण्डी, सनातनी समाज को यह बताए कि समय की मांग कहने का अधिकार इसे किसने दिया ? स्वयं मुसलमानों की चापलूसी करने वाला यह व्यक्ति क्या उन स्त्रियों का प्रतिनिधित्व करता है, जिन्हें निर्वस्त्र करके म्लेच्छों ने दो दो दीनार में बेच दिया था ? क्या यह व्यक्ति सनातनी धर्माधिकारियों की उस परम्परा का प्रतिनिधित्व करता है, जिन्हें मारकर उनके जनेऊ को तौला जाता था, क्योंकि लाशें गिनने में समस्या होती ? क्या यह व्यक्ति उन लाखों करोड़ों गायों का प्रतिनिधित्व करता है, उन लाखों देवालयों का प्रतिनिधित्व करता है, उन लाखों बालक बालिकाओं का प्रतिनिधित्व करता है जिनके प्राण और अस्तित्व क्रूरकर्मा म्लेच्छों ने यही अली, हुसैन, गाजी, मौला, ख्वाजा और मुहम्मद के नाम पर नष्ट कर डाले हैं ? है कौन यह व्यक्ति जो स्वयं को सर्वोच्च मानकर ऐसा प्रलाप करता है ? समय क्या है ? काल क्या है ? श्रीकृष्ण ने कहा - मैं ही काल हूँ। कालोऽस्मि ... और वही श्रीकृष्ण कहते हैं, शास्त्र के विरुद्ध मत चलो। हम श्रीकृष्ण रूपी समय की मांग को सही कहें या धूर्तों की बात को ? इसके समर्थक लोग कहते हैं कि ये सन्त हैं, साधु हैं, इनकी शैली समझो। कथा के लिए एक रुपया भी नहीं लेते। करोड़ों रुपए दान में देते हैं। बहुत अच्छे से हम इसका व्यापार समझते हैं। साधु और सन्त का काम क्या है ? समाज को धर्म के प्रति आस्थायुक्त करना, अथवा उसको अपने ही आराध्यों के प्रति संदेह, उपहास एवं घृणा से भर देना ? एक भी रुपया नहीं लेने का दावा करने की बात की जांच आप स्वयं कर लें। इनके प्रबन्धकों को फोन करें और कहें कि हमें कथा करानी है। इसके राजसी ठाठ और व्यवस्था के खर्च को सुनकर ही आपको वास्तविकता ज्ञात हो जाएगी। ये जो करोड़ों रुपये दान देता है, यदि हम उससे ही इसे साधु कह दें तो फिर वेटिकन वालों को तो सबसे बड़ा साधु कहना पड़ेगा क्योंकि भारत में अपने अनुयायी बढ़ाने के लिए वे लोग हज़ारों करोड़ खर्च कर रहे हैं। हिंदुओं की दी गयी दक्षिणा के करोड़ों रुपयों से हज़ यात्रा करवाने वाले यह धूर्त हिन्दू धर्म का वह कोढ़ है, जिसे खुजलाने में तो आनंद आता है किंतु वह और भी सड़न उत्पन्न करता ही रहता है। श्रीरामकथा, श्रीकृष्णकथा में जो ज्ञान है, जो वीरता है, अवतार का उद्देश्य एवं शिक्षा जो है, उसे न बताकर इधर उधर का प्रलाप, म्लेच्छों का गुणगान, गौभक्षकों के साथ उठना बैठना, उनके ही टेंट, माइक, गायन, भोजन का प्रयोग करना, और कथाभाग के नामपर केवल श्रीराम जी की कारुण्यप्रधान नरलीला, श्रीकृष्ण भगवान् की लोकलीला का बिना पूर्वापर प्रसङ्ग, उद्देश्य, कारण आदि बताए हुए भ्रामक प्रस्तुति देना, यह सब इस कालनेमि का प्रमुख कृत्य बन गया है। इसके एक अनुयायी ने तो हमें यहां तक कह दिया कि जब बापू जी जैसे "पॉपुलर" हो जाओ, तब बात करना। संख्याबल और प्रसिद्धि ही, यही प्रधान है तो फिर ईसा और मुहम्मद के अनुयायियों की संख्या तो पांच अरब की है। मोरारी बापू के तो एक करोड़ भी न होंगे। और तो और, मोरारी बापू तो आतातायी मजहब वालों को करुणानिधान बताता ही है, फिर क्यों इसके चेले हिन्दू वेष बनाकर घूम रहे हैं, सीधे कलमा क्यों नहीं पढ़ लेते हैं ? धर्म की बात करने के लिए पॉपुलर नहीं बनना पड़ता, शास्त्रनिष्ठ बनना पड़ता है। श्रीराम दरबार जी के दिव्य रूप को विकृत करके धनुष बाण, एवं यहां तक कि शास्त्रोक्त यज्ञोपवीत तक उतरवा लेने वाला यह म्लेच्छ स्वयं को सन्त कैसे कह सकता है ? शास्त्रों में संशोधन की बात कहकर, भारत को पिछले एक हज़ार वर्षों से रक्तरंजित करने वाले म्लेच्छों से गठजोड़ की बात कहने वाला यह छद्मवेशी म्लेच्छ कैसे साधु हो जाएगा ? यदि हम कहें कि इसकी शैली को समझो, तो फिर ग्राह्य नहीं, क्योंकि जिस शैली से देवताओं के प्रति अनादर उत्पन्न हो, शास्त्रों में अनास्था हो, वह शैली महापुरुषों की नहीं, पाखंडियों की ही होती है। अभी कुछ दिन पूर्व उसका एक वीडियो प्रसिद्ध हुआ, जिसमें इसने कुछ मुख्य बिन्दु कहे - १) कृष्ण का जीवन टोटल फेल था। २) बलराम शराबी था। ३) रुक्मिणी, राधा आदि कृष्ण को ताना मारती थी। उपर्युक्त विषय पर मान्य धर्माधिकृत सज्जनों ने बहुत प्रकार से आपत्ति करते हुए मुरारिदास के इस नीच वक्तव्य की भर्त्सना की, एवं शास्त्रों के कई प्रमाणों से इसका खण्डन भी किया। इस विषय पर मैं संक्षेप में ही, अति सूक्ष्म भाव से सनातनी समाज को मुरारिदास के द्वारा उत्पन्न किये गए भ्रमजाल से निकालने के लिए कुछ बिंदु प्रस्तुत करूँगा।

भगवान् श्रीकृष्ण का लौकिक जीवन, जिसकी उपासना, आराधना, स्वयं महाभागवत भीष्मपितामह, सर्वज्ञ वेदव्यास जी, धौम्य, दुर्वासा, नारद, च्यवन, गर्ग, सांदीपनि, शांडिल्य, मार्कण्डेय आदि अनेकानेक ऋषिगण, इन्द्र, वरुण, शंकर, अग्नि, ब्रह्मा, कामधेनु आदि अनेकानेक श्रेष्ठ देवगण करते हैं, उनके जीवन का साफल्य बस दो ही व्यक्तियों को समझ में नहीं आया है, एक तो शिशुपाल, और एक मुरारिदास। जैसे उस काल में शिशुपाल के साथ पौंड्रक, रुक्मी आदि चाटुकार थे, वैसे ही मुरारिदास के चाटुकार भी उसके वक्तव्यों की प्रशंसा करते हैं। अतएव श्रीकृष्ण भगवान् का जीवन कितना सफल रहा, इसे अलग से सिद्ध करने की आवश्यकता मैं नहीं समझता।

राधा, रुक्मिणी आदि ने भगवान् को हास विनोद में कुछ कहा हो तो लीलाभाव में सर्वथा ग्राह्य है किंतु उन्होंने निन्दापरक होकर कुछ कहा ही नहीं है, अतः यह वक्तव्य भी मात्र मुरारिदास की धूर्तता ही है। हां, बलराम जी शराबी थे या नहीं, इस विषय पर केंद्रित होते हुए मैं बहुत से गुप्त कथानकों एवं परिस्थितियों के कारण प्रकाशित करते हुए इस लेख में चर्चा करूँगा।

सर्वप्रथम तो हम देखते हैं कि बलराम जी कौन हैं !! संकर्षणोपनिषत् के अनुसार बलराम जी शेषनाग के अवतार हैं। शेषनाग के अन्य अवतारों की चर्चा उसी उपनिषत् में श्रीराम जी के भाई लक्ष्मण, वैयाकरण पतञ्जलि, श्रीरामानुजाचार्य जी आदि के रूप में भी आई है। प्रत्येक देवता का, जब वह एक सगुण अवतार या सगुण रूप धारण करता है, तो उसका एक गुण होता है। गुण का अर्थ यहां अच्छाई बुराई से नहीं है। गुण का अर्थ यहां सात्विक, राजस, एवं तामस गुणों से है। वैसे तो सभी देवताओं में सभी गुण होते हैं किंतु उसमें भी वे स्वभावतः एक गुण का प्रकाशन विशेष रूप से करते हैं। जैसे भगवान् विष्णु को स्वभावतः सात्विक गुण की प्रधानता से वर्णित किया गया है तो भगवान् भैरव आदि को तमोगुण की प्रधानता से। देवी लक्ष्मी को सामान्यतः सात्विक गुण वाली बताया गया है तो देवी निकुम्भिला को तमोगुण वाली कहते हैं। हालांकि सत्वगुण से भी सबों की पूजा हो सकती है और तमोगुण से भी, किन्तु एक गुण की सामान्य प्रधानता वाले की आराधना उसी गुण से युक्त होकर करनी चाहिए। वैसे परमात्मरूप में दोनों निर्गुण गुणातीत हैं किंतु फिर भी लोकव्यवहार में शिव जी को तमोगुण का अधिष्ठाता बताया गया है, और विष्णु भगवान् को सत्वगुण का। फिर भी यह सर्वदा स्थायी नहीं रहता इसीलिए तमोगुण की प्रधानता वाले कर्म को निमित्त बनाकर विष्णु का नृसिंहावतार हुआ और सत्वगुण की प्रधानता वाले कर्म को निमित्त बनाकर शिव का दक्षिणामूर्ति अवतार। कभी कभी कार्यभेद से गुणभेद भी हो जाता है, इसीलिए भगवान् सूर्य ने वैनतेय अरुण को तमोगुणी विष्णु एवं सात्विक शिव का भी संकेत किया है - गुणत्रयवशात्तेषां वैषम्यं विद्धि सुस्थितम्। ब्रह्मा हि राजसः प्रोक्तो विष्णुस्तामस उच्यते॥ रुद्रस्स सात्विक: प्रोक्तः मूर्तिर्वर्णैश्च तादृशा:। (सूर्यगीता, अध्याय - ०३, श्लोक - ३२) देवताओं में गुणों की विभिन्नता के कारण भिन्नता प्रतीत होती है, जैसे ब्रह्मा राजस हैं, विष्णु तामसी हैं और शिव को सात्विक कहा गया है। उनके स्वरूप का रंग भी वैसा ही है। (ब्रह्मा लालिमा से युक्त हैं, शिव जी गोरे हैं, एवं विष्णु भगवान् सांवले हैं) जिस देवता का जो स्वाभाविक गुण होता है, वह वैसे ही स्वरूप का कर्म का प्रदर्शन करता है। जैसे कालिका देवी का स्वाभाविक गुण तामसी है, तो उनके स्वरूप में आपको कपाल, रक्तपान, अस्थिमाला आदि दिखेंगे। भगवान् नारद जी का गुण सात्विक है तो वहां आपको वीणा, पुष्पमाला, कमण्डलु, अक्षमाला आदि दिखेंगे। प्रत्येक देवता अथवा उनके अवतार जिस गुण का आश्रय लेकर सगुणाकृति धारण करते हैं, वैसे ही स्वरूप का प्रदर्शन करते हैं। इसीलिए कहा गया है कि देवताओं के चरित्र की नकल करने से अकल्याण होता है , उनके उपदेशों का ही अनुसरण करना चाहिए, अन्यथा भगवान् शिव की भांति हलाहल विष पीने की नकल करने से कष्ट ही भोगना पड़ेगा। देवताओंके कर्म, स्वरूप, अवतार ये इन्हीं गुणत्रयी में से किसी को अधिष्ठान बनाकर होते हैं, इसीलिए उसका प्रदर्शन करते हैं। अब हमने जाना कि बलराम जी शेषनाग के अवतार हैं। शेषनाग का प्रधान नाम संकर्षण है। ये कभी कभी रजोगुण की प्रधानता धारण करते हैं तो कभी तमोगुण की प्रधानता से कार्य करते हैं। आप ध्यान देंगे तो पाएंगे कि सत्वगुण की प्रधानता वाले विष्णुसम्बन्धी अंश से भगवान् श्रीराम आये, जो स्वभावतः गम्भीर, शांत एवं सहनशीलता के धनी थे। रजःप्रधान तमोगुणी शेषनाग के अंश से अवतरित लक्ष्मण जी में क्रोध, चंचलता, असहिष्णुता और अधीरता अधिक दिखते हैं। रजोगुण की प्रधानता वाले परशुरामावतार में क्रोध की प्रधानता है तो सत्वगुण की प्रधानता वाले नर-नारायण का अवतार में वैराग्य आदि की भावना। इसका कारण यह है कि प्रत्येक अवतार अपने तत्सम्बन्धी सात्विकादि गुणों का ही प्रदर्शन करता है। जैसे अग्नि के गुण में दाह और जल के गुण में शीतलता। सूर्य के गुण में प्रकाश तो पृथ्वी के गुण की उर्वरता एवं सहनशक्ति। इस सभी शक्तियों एवं तत्वों के अधिष्ठाता देवता भी अपने व्यक्तित्व एवं कर्म में उन्हीं गुणों का प्रदर्शन करते हैं। अंशेन वासुदेवस्य जातो रामो महायशाः। संकर्षणस्य चांशेन लक्ष्मणः परवीरहा॥ (विष्णुधर्मोत्तरपुराण, खण्ड - ०१, अध्याय - २१२, श्लोक - २१) जैसे भगवान् श्रीकृष्ण, वासुदेव, गोविंद, आदि सब व्यवहार में समान व्यक्तित्व के लिये प्रयुक्त हैं, वैसे ही बलराम, बलभद्र, अनन्त, राम, बल, शेष, संकर्षण आदि भी समानरूप से ही समझे जाने चाहिए। गर्भसङ्कर्षणात्तं वै प्राहुः सङ्कर्षणं भुवि। रामेति लोकरमणाद्बलभद्रं बलोच्छ्रयात्॥ (श्रीमद्भागवत महापुराण, स्कंध - १०, अध्याय - ०२, श्लोक - १३) देवकी के गर्भ से खींच कर (योगमाया के द्वारा) रोहिणी के गर्भ में स्थापित होने से उन्हें संकर्षण कहते हैं। संसार को आनंद देने से राम और बल की अधिकता से बलभद्र कहते हैं। ज्येष्ठः संकर्षणो नाम कनीयान्कृष्ण एव तु। (हरिवंशपुराण, विष्णुपर्व, अध्याय - ०६, श्लोक - ०२) ज्येष्ठावतार, बड़े भाई का नाम संकर्षण (बलराम) एवं कनिष्ठावतार, छोटे भाई का नाम कृष्ण है। यहां मात्र अवतार के समय पहले और बाद में आने से छोटे बड़े होने की बात है। संकर्षणस्य विद्याया रक्तो वर्ण इहोच्यते। (विश्वक्सेनसंहिता, अध्याय - १३, श्लोक - ०५) संकर्षण सम्बन्धी विद्या का रंग लाल बताया गया है। संकर्षणो रक्तवर्णः (प्रश्नसंहिता, अध्याय - ३६, श्लोक - ०७) संकर्षण का वर्ण लाल है। ओंकार की साढ़े तीन मात्रा (अ, उ, म और बिंदु) के गुण क्रमशः सात्विक, राजस, तामस एवं गुणातीत हैं। इसमें मकार यानी तमोगुणी तत्व, जो संहार का कारक है, उसके अधिष्ठाता भगवान् संकर्षण ही है, जो लोकसंहार का प्रथम उपक्रम करते हैं। संकर्षणो मकारस्तु (लक्ष्मीतन्त्र, अध्याय - २४) संकर्षति प्रजाश्चान्ते ह्यव्यक्ताय यतो विभुः। ततः संकर्षणो नाम्ना विज्ञेयः शरणागतैः॥ (पद्मपुराण, भूमिखण्ड, अध्याय - ३९, श्लोक - १८) सृष्टि के अंत में अव्यक्त ब्रह्म के प्रति सभी प्राणियों को बलपूर्वक खींचते हैं इसीलिए शरणागत जनों के द्वारा उन्हें संकर्षण के नाम से जाना जाता है। रक्तवर्णस्तु राजसः (प्रकाश संहिता, प्रथम परिच्छेद, अध्याय - ०४) अब लाल रंग वाले संकर्षण हैं, तो लाल रंग किसका प्रतीक है ? रजोगुण का। इसीलिए संकर्षण तत्व में, एवं तदंशभूत बलराम जी में रजोगुण की प्रधानता है। द्वितीया कालसंज्ञान्या तामसी शेषसंज्ञिता। निहन्ति सकलांश्चान्ते वैष्णवी परमा तनुः॥ (कूर्मपुराण, अध्याय - ४८) साथ ही, कालसंज्ञक एवं शेषसंज्ञक दूसरी वैष्णवी मूर्ति को तमोगुण वाली कहते हैं जो अन्त, प्रलयकाल में सबका संहार कर देती है। रजोगुण की प्रधानता से क्या लक्षण दिखते हैं ? श्रीमदादाभिजात्यादिः यत्र स्त्रीद्यूतमासवः ॥ (श्रीमद्भागवत महापुराण, स्कन्ध - १०, अध्याय - १०, श्लोक - ०८) ऐश्वर्य का मद, स्त्रियों से विहार, द्यूत एवं मद्य का सेवन, यह सब रजोगुण के प्रतिफल हैं। रजोगुणी तत्व की प्रधानता वाले अवतार को धारण करने से बलराम जी में यह सब रजोगुणी लक्षण भी दिखते हैं। ऐश्वर्य के मद से ही उन्होंने क्रुद्ध होकर हस्तिनापुर के विनाश की लीला की। रैवतक पर्वत पर स्त्रियों के साथ विहार किया, अनिरुद्ध के विवाह में रुक्मी आदि के साथ द्यूतक्रीड़ा की तथा वारुणी मदिरा का सेवन भी करते थे। शेषावतार का कार्य पृथ्वीर्वा ब्रह्माण्ड की स्थिति को सूक्ष्म शक्तियों से धारण किये रखना है। शेषो भूत्वाहमेको हि धारयामि वसुंधराम्। (ब्रह्मपुराण, अध्याय - ५६, श्लोक - २०) पातालानामधश्चास्ते शेषो विष्णुश्च तामसः। (अग्निपुराण, अध्याय - १२० श्लोक - ०४) पाताल के नीचे तामसी विष्णु (पांचरात्र मत से विष्णुदेव की तामसी मूर्ति को संकर्षण कहते हैं) विश्राम करती है। पातालानामधश्चान्ते शेषो विष्णोश्च तामसः । गुणानन्यान् स चानन्तः शिरसा धारयन्महीम्॥ (अग्निपुराण, अध्याय - १०५) विष्णु के तामसी रूप शेषनाग पाताल के भी नीचे अन्तभाग में रहते हैं जो अन्य (राजस की प्रधानता एवं सत्व की न्यूनता आदि गुणों) को भी धारण करते हुए मस्तक पर पृथ्वी को धारण करते हैं। पद्मपुराण की शिवगीता में कहते हैं - दुःखास्पदं रक्तवर्णं चञ्चलं च रजो मतम्। रक्तवर्ण वाला यह रजोगुण दुःख एवं चंचलता देता है। रजोगुण की प्रधानता से हुए लक्ष्मणावतार में चंचलता दिखती ही है। श्रीमद्देवीभागवत महापुराण में कहते हैं - रक्तवर्णं रजः प्रोक्तमप्रीतिकरमद्‌भुतम् । अद्भुत, किन्तु कष्टकारक कर्म कराने वाले रजोगुण का वर्ण लाल है। बलराम जी अद्भुतकर्मा भी थे किंतु उन्होंने महाभारत में तटस्थ रहकर, सुभद्रा का विवाह दुर्योधन के साथ तय करके और भी ऐसे कतिपय भावनात्मक निर्णयों से अपने सुहृदों के लिए किंचित् कष्ट की स्थिति निर्मित करके रजोगुणी अवतार की लीला सार्थक की थी। अब हम उनके मदिरापान की बात करते हैं। शास्त्रों में व्यापकता से मदिरापान की निंदा की गई है। हां, कुछ औषधीय प्रयोगों में इसे ग्राह्य बताया गया है किंतु वहां भी इसे श्रेष्ठ नहीं कहा गया है। इसका कारण है कि - बुद्धिं लुम्पति यद्रव्यं मदकारि तदुच्यते। तमोगुणप्रधानं च यथा मद्यं सुरादिकम्॥ (शार्ङ्गधर संहिता, पूर्वखण्ड, अध्याय - ०४, श्लोक - २१ ) जो द्रव्य बुद्धि का नाश कर दे, उसे तमोगुण की प्रधानता के कारण मदकारक कहते हैं, जैसे मद्य, सुरा आदि। मद्य, मधु, सुरा, मदिरा आदि ये सब शब्द पर्यायवाची हैं। इनका अर्थ है, मदहोश करने वाला। जैसे प्याज़, शलगम आदि भी सब्जी है और लौकी, पपीता आदि भी। किन्तु प्याज़ आदि ग्राह्य नहीं है, और पपीता आदि ग्राह्य है। वैसे ही मधु या सुरा की श्रेणी में शराब, शहद, शर्बत, यहां तक कि अमृत आदि सब आ जाएंगे। उनमें से कुछ ग्राह्य हैं, कुछ नहीं। यथा, स्त्रीरमण शब्द का अर्थ पत्नी से रमण ही होता है। माता भी स्त्री ही कहाएंगी, किन्तु वहाँ पत्नी वाला भाव नहीं रहेगा। तो जैसे स्त्री एक जातिवाचक शब्द है, उसमें माता पत्नी बहन आदि ग्राह्य अग्राह्य भेद हैं, वैसे ही मधु, सुरा आदि जातिवाचक हैं जिसमें ग्राह्य एवं अग्राह्य श्रेणी हैं। आयुर्वेदिक ग्रंथों में सुरा से रोगों की चिकित्सा का व्यापक वर्णन है। यदा नाडी भवेत्क्षीणा रोगेऽस्मिन् भिषजा तदा। सजला बललाभाय मृतसञ्जीवनी सुरा॥ (भैषज्य-रत्नावली, अध्याय - ९९, श्लोक - ०६) बलराम जी केवल वारुणी नाम का ही पेयविशेष ग्रहण करते थे, किसी अन्य मदिरा आदि का नहीं। वारुणी को किस ऋतु में पिये, किस रोग में सेवन करके, इसके कुछ सामान्य उदाहरण देखें - वाग्भट संहिता के चिकित्सास्थान का वचन है - स्नेहाढ्यैः सक्तुभिर्युक्तां लवणां वारुणीं पिबेत्॥ सुश्रुत संहिता के उत्तर तन्त्र का वचन है - सुसंस्कृताः प्रदेयाः स्युर्घृतपूरा विशेषतः। वारुणीं च पिबेज्जन्तुस्तथा संपद्यते सुखी॥ शीतलत्वादृतोश्चापि न तावत्परिभिद्यते। तस्मात्तैलगुडोपेतां वारुणीं शिशिरे पिबेत्॥ (भेल संहिता, विमान स्थान, अध्याय - ०६, श्लोक - २०) बलराम जी स्वयं परम् योगेश्वर हैं। वे योगबल से भी वारुणीपान कर सकते हैं, अतएव उनमें सामान्य पतित मद्यप की भावना का आधान उचित नहीं है। कपालमुद्रां वारुणीं पिबामि (हाहाराव तन्त्र) मैं (साधक) कपालमुद्रा (चक्रस्थित बिंदुविशेष) वाली वारुणी को पीता हूँ। ओंकार की जो अंतिम बिंदुमात्रा है, उसे भी वेदों में वारुणी कहा गया है। परमा चार्धमात्रा या वारुणीं तां विदुर्बुधाः॥ (नादबिन्दूपनिषत्) रुद्रयामल तन्त्र का वचन है - कलासप्तदशप्रोक्ता अमृतं स्राव्यते शशि:। प्रथमा सा विजानीयादितरे मद्यपायिनः॥ चंद्रमा की (लौकिक सोलह एवं यौगिक एक के साथ कुल) सत्रह कलाएं हैं जिनसे वह अमृत टपकाता है। उसे ही (पञ्चमकार में) प्रथम जानना चाहिए। उसका ही सेवन करने वाला तन्त्र में मद्यप है, अन्यथा सामान्य शराबी तो बहुत से हैं। इस प्रकार से वारुणी शब्द का, उस वारुणी मद्य का, यौगिक, तांत्रिक एवं वैदिक अर्थ यह सिद्ध करता है कि योग, तन्त्र एवं वेदों के परम उपास्य श्रीबलरामजी वारुणीपान करते हुए भी लौकिक व्यसनियों की भांति निंद्य नहीं है। शतपथब्राह्मण में 'अन्नं सुरा' आदि भी आया है। गौडी पैष्टी च माध्वी च विज्ञेया त्रिविधा सुरा । यथैवैका तथा सर्वा न पातव्या द्विजोत्तमैः ॥ (मनुस्मृति, विष्णुस्मृति, विष्णुधर्मोत्तरपुराण, वैखानस गृह्यसूत्र) उपर्युक्त श्लोक से सुरा के गौडी, पैष्टी एवं माध्वी, इन तीन प्रकार की सुरा का वर्णन है जो द्विजातियों के लिए सर्वथा त्याज्य है। नारद पुराण निर्माणद्रव्य के भेद से इनके ग्यारह प्रकार बताता है। कुछ के मत से खजूर से बनी हुई मदिरा का नाम वारुणी है। तालं च पानसं चैव द्राक्षं खार्जूरसंभवम्॥ माधुक शैलमारिष्टं मैरेयं नालिकेरजम्। गौडी माध्वी सुरा मद्यमेवमेकादश स्मृताः॥ (नारदपुराण, पूर्वार्द्ध, अध्याय - ३०, श्लोक - ३०-३१) कुछ लोग अधिक बड़े धर्मरक्षक बनने के फेर में कहते हैं कि बलराम जी ने वारुणी पान किया ही नहीं है। यह बात सर्वथा अनुचित है। बलराम जी निःसन्देह वारुणी पान करते थे। गायन्तं वारुणीं पीत्वा मदविह्वललोचनम् । विभ्राजमानं वपुषा प्रभिन्नमिव वारणम् ॥ (श्रीमद्भागवत महापुराण, स्कन्ध - १०, अध्याय - ६७, श्लोक - १०) बलराम जी के नेत्र मद से चञ्चल हो रहे थे, वे वारुणी का पान करके गा रहे थे एवं उनके व्यक्तित्व की शोभा मदमस्त हाथी के समान हो रही थी। (यह प्रसङ्ग उस समय का है जब वे विहार के लिए रैवतक पर्वत पर गए थे और उन्होंने बाद में द्विविद का वध किया था।) जिस प्रकार से श्रुतिमन्त्र, पूर्वकाल के अयोध्या की श्रीरामाकर्षिता स्त्रियां एवं ऋषियों ने भी श्रीकृष्णचन्द्र जी के साथ गोपीवेश से कात्यायनी देवी की पूजा से प्राप्त वरदान के फलस्वरूप शरद पूर्णिमा में यमुना तट पर रासलीला की थी, वैसे ही शेषनाग के अवतार श्रीबलराम जी ने भी यमुना तट पर चैत्र पूर्णिमा को गोपीवेष धारण करने वाली नागकन्याओं के साथ रासक्रीड़ा की थी। अथ च या नागकन्याः पूर्वोक्तास्ता गोपकन्या भूत्वा बलभद्रप्राप्त्यर्थं गर्गाचार्याद्‌बलभद्रपञ्चांगं गृहीत्वा तेनैव सिद्धा बभूवुः ॥ ताभिर्बलदेव एकदा प्रसन्नः कालिन्दीकूले रासमण्डलं समारेभे ॥ तदैव चैत्रपूर्णिमायां पूर्णचन्द्रोऽरुणवर्णः सम्पूर्णं वनं रञ्जयन् विरेजे॥ (गर्गसंहिता, बलभद्रखण्ड, अध्याय - ०९) (सम्बंधित ग्रंथ में पहले वर्णित) नागकन्याओं ने गोपकन्याओं का रूप धारण करके गर्गाचार्य जी से बलभद्र जी के पञ्चाङ्ग (पटल, पद्धति, कवच, स्तोत्र, सहस्रनाम) प्राप्त करके सिद्धि प्राप्त की। इस बात से बलराम जी प्रसन्न हुए और उन्होंने कालिंदी (कलिंद अर्थात् सूर्य की पुत्री होने से यमुना जी का नाम कालिंदी है) के तट पर रासमण्डल का आरम्भ किया। उस चैत्र पूर्णिमा को किंचित् लालिमा वाला पूर्णचन्द्र (यहां बलराम जी को भी लाल वर्ण वाला पूर्ण चन्द्र बताने का भाव है) सम्पूर्ण वन को आनंदित करता हुआ विराजमान था। आगे वर्णन है - अथ वरुणप्रेषिता वारुणी देवी पुष्पभारगंधलोभिमिलिंदनादितवृक्षकोटरेभ्यः पतन्ती सर्वतो वनं सुरभीचकार ॥ वरुण देवता के द्वारा भेजी गयी वारुणी देवी ने, फूलों के गन्ध को लोभ वाली मधुमक्खियों से गुंजायमान वृक्षों की खोढर से बहकर गिरती हुई उस वन को चारों ओर से सुगंधित कर दिया। वहां वे अत्यंत प्रसन्न होकर वारुणी का पान करते हुए मधुर गीत वाद्य आदि में कुशल गोप एवं गोपियों के साथ आनंदित हो रहे थे। पपौ च गोपगोपीभिः समवेतो मुदान्वितः । उपगीयमानो ललितं गीतवाद्यविशारदैः ॥ (विष्णुपुराण, अंश - ०५, अध्याय - २५) वारुणी देवी के प्राकट्य, बलराम जी के द्वारा उनके पान की यह कथा विष्णुपुराण, श्रीमद्भागवत महापुराण आदि में भी वर्णित है। प्राड्विपाक मुनि ने दुर्योधन के साथ हुए सम्वाद में उसे विस्तार से बलरामजी के दिव्य ईश्वरीय रूप का वर्णन करते हुए बलरामजी की स्तुति की है - जय जयाच्युतदेव परात्पर स्वयमनन्तदिगंतगतश्रुत। सुरमुनींद्रफणीन्द्रवराय ते मुसलिने बलिने हलिने नमः॥ (गर्गसंहिता, बलभद्रखण्ड, अध्याय - ११, श्लोक - ०२) कभी अपनी महिमा से नीचे नहीं गिरने वाले परात्पर अच्युतदेव की जय हो। जो अनन्त हैं, जिनका कभी अन्त नहीं होता, जिनकी महिमा सभी दिशाओं में विख्यात है, जो देवताओं, ऋषियों और नागों में श्रेष्ठ हैं, ऐसे हल-मूसल को धारण करने वाले, बल के धाम (बलराम) के लिए प्रणाम है। अब बताईये, गौभक्षक म्लेच्छों के साथ रहने वाला, मंच से गुणगान करने वाला कोई बापू हो या स्वामी, भला बलराम जी के दिव्य रूप को कैसे जान सकता है ? अब हम देखते हैं कि वारुणी कहते किसे हैं। बलराम जी वारुणी ही क्यों पीते थे, वारुणी कितने प्रकार की है, उसके निर्माण की विधि क्या है, उसके सेवन का क्या प्रभाव है, आदि आदि ... अन्नादिसम्भवो योऽर्कस्तन्मद्यं परिकीर्तितम्॥ अन्न इत्यादि के द्वारा जो अर्क बनता है, उसे मद्य कहा जाता है। शिव जी ने रावण को तंत्रायुर्वेद ग्रंथों में कई प्रकार के मद्य का उपदेश करके करके अंत में कहा - शालिपेठकपिष्ट्यादिकृतो योऽर्कः सुरा तु सा। पुनर्नवाशिवापिष्टैर्विहिता वारुणी स्मृता॥ (रसकामेश्वरी दिव्यचिकित्साखण्ड, अध्याय - ०५ अथवा सुराकल्पामृतयोग नामक प्रथम पटल, श्लोक - ०९) चावल एवं पेठे की पिष्टी बनाकर जो अर्क निकाला जाता है, उसे सुरा कहते हैं। पुनर्नवा एवं हरड़ को पीसकर उसकी पिष्टी से निकाला गया अर्क वारुणी कहलाता है। रावण को शिव जी ने सौ से अधिक प्रकार के अर्क एवं मद्य के निर्माण की विधि बताई है। इसी बात में रावण ने मन्दोदरी को बताते हुए कहा है - पुनर्नवाशिलापिष्टैर्विहिता वारुणी च सा। संहितैतालखर्जूररसैर्या सा च वारुणी॥ (दिव्यौषधि कल्प, मद्यप्रकरण, पटल - ११, श्लोक - ५९) पुनर्नवा को पत्थर पर पीस कर, उससे बनने वाले मद्य को वारुणी कहते हैं। ताड़ एवं खजूर के रस से जो मद्य बनता है, उसको भी वारुणी कहते हैं। (आजकल भी आयुर्वेद-ग्रंथों के आधार पर पुनर्नवारिष्ट अथवा द्राक्षासव बनाते और सेवन किये जाते हैं, जो शरीर में बल, वीर्य, ओज, रक्त आदि की वृद्धि करते हैं, इनकी भी तन्त्रमत में वारुणी संज्ञा है) पर्यायाद्यो भवेन्मद्यस्तामसो राक्षसप्रियः। मंडादि राजसो ज्ञेयस्ततो वै सात्विको भवेत्॥ सात्विकं गीतहास्यादौ राजसं साहसादिके। तामसे निंद्यकर्माणि निद्रां च बहुधा चरेत्॥ (रसकामेश्वरी दिव्यचिकित्साखण्ड, अध्याय - ०५, सुराकल्पामृतयोग नामक प्रथम पटल, श्लोक - ११-१२) बारम्बार एक ही तत्व को धर्षित करके बनाए गए (अथवा अत्यधिक मात्रा में सेवन किये गए) को तामसी मद्य कहते हैं। मांड आदि से बनाये गए (मतांतर से कभी कभी लिए गए) मद्य को राजसी कहते हैं। इसके अतिरिक्त शेष (औषधि आदि से निर्मित, संवित्शक्ति को देने वाले) मद्य को सात्विक कहते हैं। सात्विक मद्य का प्रयोग गीत, हास्य, विलास आदि में होता है। साहस, युद्ध इत्यादि के कार्य में राजस मद्य का प्रयोग होता है। शेष निंद्य कर्म तथा निद्रा आदि को प्रदान करने वाले कर्म में तामसी मद्य का प्रयोग होता है। वारुणी के दो अन्य पर प्रभेद भी होते हैं - राजवारुणी एवं क्षुद्रवारुणी। राजवारुणी के निर्माण की विधि बताते हैं - शुण्ठी कणा कणामूलं यवानी मरिचानि च॥ तुल्यान्येतानि सर्वाणि एभ्यो द्विध्नोऽम्नलो रजः। प्रोक्तान्तर्गतदिक्कान्नं स्वादुसंख्या नखोन्मिता। सर्वेभ्यो द्विगुणं स्वादं स्थापयेन्मासमात्रकम्। कुर्यादष्टप्रहरकं प्रत्यहं च ततः पुनः॥ ततो निष्कासयेदर्कं सुरेयं राजवारुणी। मासं भूमौ निखातव्या तत ऊर्ध्वं च भक्षयेत्॥ (रसकामेश्वरी दिव्यचिकित्साखण्ड, अध्याय - ०५, सुराकल्पामृतयोग नामक प्रथम पटल, श्लोक - २३-२६) सोंठ, पीपर, पिपरामूल, अजवायन एवं काली मिर्च को समान भाग में लेकर कूट लें और दोगुने अम्ल (मट्ठा, विनेगर, इमली पानी आदि) में मिलाएं। फिर इसमें दस प्रकार की शहद एवं बीस प्रकार के गन्ने का रस मिलाएं। (कुछ वैद्य इसमें आठ प्रकार की शहद एवं बारह प्रकार के गन्ने का रस मिलाते हैं) इसके बाद इन सबसे दोगुना गुड़ मिलाकर एक महीने तक घड़े में, प्रतिदिन आठ प्रहर दिन के धूप में रखें। उसके बाद इसका अर्क निकाल लें, इसे ही राजवारुणी कहते हैं। इसे पुनः एक महीने तक घड़े में बंद करके, ढ़ककर मिट्टी में दबा दें। एक महीने के बाद खोदकर निकालें एवं सेवन करें। अब इस राजवारुणी के पान से क्या लाभ होता है, उसका विवेचन करते हैं - इयं शीता लघु: स्वाद्वीस्निग्धा ग्राही विलेखनी। चक्षुष्या दीपनी स्वर्या व्रणशोधनरोपणी॥ सौकुमार्यकरा सूक्ष्मा परं स्रोतोविशोधनी। कषाया च रसाह्लादा प्रसादजनका परा॥ वर्ण्या मेधाकरी वृष्या तथारोधकतां हरेत्। कुष्ठार्श: कासपित्तास्रकफमेहक्लमकृमीन्॥ मेदतृष्णावमिश्वासहिक्कातिसारविड्ग्रहान्। दाहक्षतक्षयायैवं योगवाह्याऽम्लवातला॥ (रसकामेश्वरी दिव्यचिकित्साखण्ड, अध्याय - ०५, सुराकल्पामृतयोग नामक प्रथम पटल, श्लोक - २७-३०) यह राजवारुणी शीतल, हल्की, मीठी, चिकनी स्वभाव की, पतले दस्त को ठीक करने वाली, नेत्रों की ज्योति बढ़ाने वाली, भूख जगाने वाली, कण्ठ को मधुर करने वाली, घाव-जख्म आदि भरने वाली, शरीर को सुन्दर एवं सुकुमार बनाने वाली, नाड़ियों में रक्तप्रवाह को सुधारने वाली, शारीरिक कान्ति बढ़ाने वाली, धारणा शक्ति और वीर्य को पुष्ट करने वाली, अरुचि का नाश करने वाली, कुष्ठ, अर्श (बवासीर), खांसी, रक्तपित्त, कफ, प्रमेह, थकावट, कृमि, मेदा रोग, अत्यधिक प्यास या उल्टी, श्वास रोग, हिचकी, अतिसार, कब्ज, जलन, बदहज़मी एवं क्षयरोग को दूर करने वाली है। अब इससे कुछ सामान्य गुणों वाली क्षुद्रवारुणी की विधि एवं प्रभाव पर ध्यान दें - कंगुश्चीणा कोद्रवश्च श्यामाको वनकोद्रव:। शणबीजं वंशबीजं गवेध्रुश्च प्रसाधिका॥ यावन्त्येतानि चोक्तानि तुषधान्यानि वेधश:। सर्वे संतुट्य यत्नेन वितुषीकृत्य यत्नतः॥ तक्रे वा क्वचिदम्ले वा आकीटं तद्विनि:क्षिपेत्। ततो निष्कासयेन्मद्यं भवेत्सा क्षुद्रवारुणी॥ मण्डलार्धं तु भोक्तव्या बहुक्लेशकरैर्नरै:। क्षुधा तृषा च चिन्ता च """पर्वतारोहणादिकम्"""॥ एतत्स सेवितो नास्ति """महाभारवहोऽपि वा"""। सूता समुपवेष्टा चेज्जयेत् प्रसववेदनाम्॥ (रसकामेश्वरी दिव्यचिकित्साखण्ड, अध्याय - ०५ अथवा सुराकल्पामृतयोग नामक प्रथम पटल, श्लोक - ३१-३५) कँगुनी, चीना (सम्भवतः रामदाना), कोदो, साँवा, बनकोदो, सन के बीज, बांस के बीज (करील के उद्भवकण), गड़हेरुआ और प्रसन्धिका, ये सभी क्षुद्र धान्य कहलाते हैं। अब सबको अच्छे से कूटकर भूसी निकाल लें और मट्ठे या दूसरी (दोगुनी) खटाई में डाल दें। जब इसमें किण्वन (Fermentation) हो जाये तो अर्क निकाल लें। यह मद्य क्षुद्रवारुणी कहलाती है। अधिक परिश्रम करने वाले व्यक्तियों को यह पन्द्रह दिन तक सेवन करनी चाहिए। इसके सेवन से अधिक परिश्रम करने की क्षमता विकसित होती है। """पर्वत चढ़ने वालों एवं भार ढोने वालों को कष्ट नहीं होता।""" बच्चे के जन्म के समय प्रसूता को इसे पिलाने से उसे प्रसवपीड़ा में आराम मिलता है। आप ध्यान देंगे तो कुछ बातें पाएंगे :- १) बलराम जी रजोगुणी अथवा मतांतर से तमोगुणी अवतार हैं, जिसके कारण उनके व्यक्तित्व में तमोगुणी अथवा रजोगुणी क्रियोचित वारुणीपान की लीला सामान्य है। २) बलराम जी का बारम्बार अत्यधिक बलयुक्त कार्य करना, लम्बी यात्राएं करना, रैवतक आदि पर्वतों पर चढ़ना वर्णित है, जिससे हुए लौकिक थकान को वारुणी दूर करती है। शेषावतार बलराम जी आध्यात्मिक एवं आधिदैविक दृष्टि से पृथ्वी का भार भी वहन करते हैं, जिसमें भी वारुणी सहायिका होती है। अतः उनका सांकेतिक वारुणीपान इस दृष्टि की भी पुष्टि करता है। ३) बलराम जी पारिस्थितिक वारुणी पान के बाद नृत्य, गीत, संगीत, पर्वतारोहण, और आंशिक रूप से साहसिक युद्धादि कार्य भी करते थे। वे शराबियों की भांति उन्मत्त होकर प्रलाप या असामाजिक गतिविधियों में लिप्त नहीं रहते थे। उपर्युक्त श्लोकों में हमने वारुणी के प्रयोगों में तत्सम्बन्धी कृत्यों का उल्लेख किया है। अब एक रहस्य कथा बताता हूँ कि वारुणी का ही पान बलराम जी क्यों करते थे ? क्योंकि वारुणी मद्य की अधिष्ठात्री देवी वरुणपुत्री वारुणी स्वयं बलराम जी की पत्नी हैं। तदैव देवी वारुणी शेषपत्नी, तपश्चक्रे इन्दिराप्रीतये च । तदा प्रीता इन्दिरा सुप्रसन्ना, उवाच तां वारुणीं शेषपत्नीम् ॥ वारुणी देवी ने, जो लक्ष्मी देवी की ही एक अंश थी (क्योंकि वे भी लक्ष्मी के साथ समुद्र से निकली थीं), उन्होंने लक्ष्मी देवी के दूसरे रूप इंदिरा की आराधना की थी। लक्ष्मी देवी ने तो श्रीविष्णु को पतिरूप में प्राप्त किया किन्तु वारुणी देवी शेषनाग को पति बनाना चाहती थीं। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर श्रीदेवी ने वरदान दिया - यदा रामो वैष्णवांशेन युक्तः संपत्स्यते भूतले रौहिणेयः । मय्यावेशात्संयुता त्वं तु भद्रे श्रीरित्याख्या बलभद्रस्य रन्तुम्॥ जब (बल)राम वैष्णवांश से युक्त होकर रोहिणीपुत्र के रूप में भूर्लोक में जाएंगे, तब तुम (वारुणी), मेरे अंश से आविष्ट होकर तुम बलभद्र के साथ विहार करोगी। संपत्स्यसे नात्र विचार्यमस्तीत्युक्त्वा सा वै प्रययौ विष्णुलोके । श्रीलक्ष्म्यंशाच्छ्रीरितीड्यां समाख्यां लब्ध्वा लोके शेषपत्नी बभूव ॥ तुम भी भूर्लोक में जाओगी, ऐसा कहकर देवी लक्ष्मी विष्णुलोक को चली गईं। उन्हीं लक्ष्मी के अंश का आश्रय लेकर वारुणी देवी संसार में शेषपत्नी बनी। या रेवती रैवतस्यैव पुत्री सा वारुणी बलभद्रस्य पत्नी । सौपर्णनाम्नी बलपत्नी खगेन्द्र यास्तास्तिस्रः षड्विष्णोश्च स्त्रीभ्यः॥ जो रैवत की पुत्री रेवती हैं, वही बलराम की पत्नी वारुणी हैं। उन्हीं का नाम सौपर्णी (अथवा सुपर्णा) भी है। इस प्रकार से शेषनाग की तीन एवं विष्णु की छः पत्नियां हुई। (शेषनाग की तीन पत्नी - ज्योतिष्मती, सौपर्णी एवं वारुणी। अवतारभेद से तीन पत्नी - तुष्टि, उर्मिला एवं रेवती। भगवान् विष्णु की कलाभेद से छः पत्नियां - श्रीदेवी, भूदेवी, वृन्दा, सरस्वती, गंगा एवं पद्मा) (गरुड़ जी कहते हैं) रामेण रन्तुं सर्वदा वारुणी तु पुत्रीत्वमापे रेवतस्यैव सुभ्रूः । एवं त्रिरूपा वारुणी शेषपत्नी द्विरूपभूता पार्वती रुद्रपत्नी॥ (गरुड़पुराण, ब्रह्मकाण्ड, अध्याय - २८) बलराम जी के साथ विहार की इच्छा से वारुणी ने रेवत की सुंदर पुत्री के रूप में अवतार लिया। इस प्रकार वारुणी तीन रूपों से शेषपत्नी बनी एवं पार्वती दो रूपों (दाक्षायणी सती एवं शैलजा उमा) से रुद्रपत्नी बनी। एक तो बलराम जी स्वयं रजोगुण की प्रधानता वाले अवतार हैं, दूसरे वारुणी देवी स्वयं उनकी पत्नी अर्थात् शक्तिरूपा है, अतः स्वशक्ति का उपभोग शक्तिमान् को बाधित नहीं करता। जैसे अग्नि को उसकी स्वयं की दाहिका शक्ति जला नहीं सकती, वैसे ही शेषावतार बलराम जी को शेषपत्नी वारुणी का नकारात्मक प्रभाव नहीं हो सकता है। मुरारिदास इत्यादि ने परम्परा से, गुरुसेवा करके शास्त्र का अध्ययन तो किया नहीं है, इसीलिए उसके गाम्भीर्य को समझने की क्षमता नहीं रखते हैं। पुनश्च, म्लेच्छों की अतिवादिता ने उसके मन को विक्षिप्त कर दिया है, जो शास्त्रों के प्रति अश्रद्धा से व्याप्त है। उसके इस प्रलाप को सुनने के लिए जो लोग वहां बैठे थे, विष्णुनिन्दा सुन रहे थे, उन्हें भी गोहत्या का पाप निश्चय ही लगेगा। हरि हर निन्दा सुनई जे काना। होई पाप गोघात समाना॥ क्या मुरारिदास या उसके प्रबंधकों में यह साहस है कि वह इस लेख में वर्णित शास्त्रोक्त प्रमाणों के आधार पर क्षमा मांगते हुए यह कह सकें कि बलराम जी पियक्कड़ शराबी नहीं थे जो दिनभर नशे में धुत्त रहते थे। मैं जानता हूँ कि वे ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि उनका कार्य समाज को धर्म की शिक्षा देना, शास्त्रनिष्ठ बनाना नहीं है, अपितु भ्रामक वार्ता करके समाज को दिशाहीन करते हुए पथभ्रष्ट करना और उसके माध्यम से अपनी दुकानें चलाना है। इन दिव्य रहस्यों को केवल गुरुकृपा से ही जाना जा सकता है, म्लेच्छों की काल्पनिक करुणा का बखान करके नहीं। वह कहता है कि धर्म में लड़ाई नहीं होती, अधर्म में होती है। सत्य है, किन्तु धर्म और अधर्म की परिभाषा तो मुरारिदास स्पष्ट करे। यदि करोड़ों हत्या और बलात्कार करने वाला अरबी मजहब भी धर्म है तो अधर्म की क्या परिभाषा है ? यहां पर धर्म और धर्म में नहीं, धर्म और अधर्म में ही तो लड़ाई है और ये है, कि अधर्म को ही धर्म बताकर हमें मूर्ख बना रहा है। अधर्म को ही धर्म समझने वाली विपरीत बुद्धि को भगवान् श्रीकृष्ण ने तामसी बताया है। बस वर्तमान स्थिति में यही कह सकता हूँ - शेषो शेषामलज्ञानः करोत्वज्ञाननाशनम् । (विष्णुधर्मोत्तरपुराण) निर्मल ज्ञान ही जिनमें शेष है, ऐसे भगवान् शेष अज्ञान का नाश करें। नमोऽस्तु ते सङ्कर्षणाय बलभद्रायानन्ताय परमात्मने लीलामानुषाय। लोकों को आकर्षित करने वाले, अनंत, बलभद्र, लीला से मनुष्य का रूप धारण करने वाले परमात्मा को प्रणाम है।


श्रीमन्महामहिम विद्यामार्तण्ड श्रीभागवतानंद गुरु His Holiness Shri Bhagavatananda Guru


 
 
 


श्रीआद्यशंकराचार्यसन्देश ( पहला भाग एवं दुसरा भाग )


पहला भाग मे कथावाचिकाओं की धज्जियाँ अर्थात् पहला भाग में उल्लेख किया गया तथ्य के आधार पर कथावाचिका कुतर्क देते हे की वे कथा की अधिकारी है अर्थात् इसको पाखण्डीओं का जयपताका कहा जाता है ।


पहला भागः-


पराशर-संहिता के भाष्यकार तथा वैष्णव परंपरा के परम आचार्य मध्वाचार्य जी ने अपनी टीका में लिखा है -“द्विविधा स्त्रियो ब्रह्मवादिन्यः सद्योवधवश्च| तत्र ब्रह्वादिनीनाम् उपनयनम् अग्निबन्धनम् वेदाध्ययनम् स्वगृहे भिक्षा इति, वधूनाम् तु उपस्थिते विवाहे कथंचित् उपनयनं कृत्वा विवाहः कार्यः|” अर्थात् दो प्रकार की स्त्रियाँ होती हैं- एक ब्रह्मवादिनी जिनका उपनयन होता है और जो अग्निहोत्र

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, वेदाध्ययन तथा अपने घर में भिक्षावृत्ति (घर के लोगों की निष्काम सेवा तथा स्वेच्छा से मिले अन्न-धन से जीवन यापन) करती हैं | दूसरी श्रेणी (सद्योवधु) की स्त्रियाँ वे हैं जिनका शीघ्र ही विवाह होना होता है और इनका भी उपनयन-संस्कार करने के उपरांत ही विवाह करना चाहिए| गोभिलीय गृह्यसूत्र चर्चा आती है :”प्रावृतां यज्ञोपवीतिनीम् अभ्युदानयन् जपेत्, सोमोsददत् गन्धर्वाय इति” अर्थात् कन्या को कपडा पहने हुए, यज्ञोपवीत पहना कर पति के निकट लाकर कहे :”सोमोsददत्”|साथ ही, एक श्लोक है (सन्दर्भ ग्रन्थ मुझे याद नहीं आ रहा) : “पुराकल्पे हि नारीणां मौञ्जीबन्धनमिष्यते| अध्यापनं च वेदानां सावित्रीवाचनं तथा||” अर्थात् प्राचीन-काल में स्त्रियों का यज्ञोपवीत होता था, वे वेद शास्त्रों का अध्ययन करती थीं| ७ वीं शताब्दी में सम्राट हर्षवर्धन की रानी महाश्वेता का वर्णन करते हुए अपने महाकाव्य कादम्बरी में बाणभट्ट ने लिखा है : “ब्रह्मसूत्रेण पवित्रीकृतकायाम्” अर्थात् ब्रह्मसूत्र को धारण करने के कारण पवित्र शरीर वाली | मालवीय जी भी स्त्रियों की वेदादि शिक्षा के प्रबल पक्षधर रहे | लक्ष्मी ने विष्णु भगवान को भागवत सुनाई |ऋग्वेद १०| ८५ में सम्पूर्ण मन्त्रों की ऋषिका ‘सूर्या- सावित्री’ है| ऋषि का अर्थ निरुक्त में इस प्रकार किया है—‘‘ऋषिर्दर्शनात्| स्तोमान् ददर्शेति (२.११)| ऋषयो मन्त्रद्रष्टर: (२.११ दु. वृ.)|’’ अर्थात् मन्त्रों का द्रष्टा उनके रहस्यों को समझकर प्रचार करने वाला ऋषि होता है| ऋग्वेद की ऋषिकाओं की सूची बृहद् देवता के दूसरे अध्याय में इस प्रकार है— घोषा, गोधा, विश्ववारा, अपाला, उपनिषद्, निषद्, ब्रह्मजाया (जुहू), अगस्त्य की भगिनी, अदिति, इन्द्राणी और इन्द्र की माता, सरमा, रोमशा, उर्वशी, लोपामुद्रा और नदियाँ, यमी, शश्वती, श्री, लाक्षा, सार्पराज्ञी, वाक्, श्रद्धा, मेधा, दक्षिणा, रात्री और सूर्या- सावित्री आदि सभी ब्रह्मवादिनी हैं| ऋग्वेद के १०- १३४, १०- ३९, ४०, १०- ९१, १०- ९५, १०- १०७, १०- १०९, १०- १५४, १०- १५९, १०- १८९, ५- २८, ८- ९१ आदि सूक्त की मन्त्रदृष्टा ये ऋषिकाएँ हैं| ऐसे अनेक प्रमाण मिलते हैं, जिनसे स्पष्ट होता है कि स्त्रियाँ भी पुरुषों की तरह वेदाध्ययन व यज्ञ करती और कराती थीं| वे यज्ञ- विद्या और ब्रह्म- विद्या में पारंगत थीं| तैत्तिरीय ब्राह्मण’’ में सोम द्वारा ‘सीता- सावित्री’ ऋषिका को तीन वेद देने का वर्णन विस्तारपूर्वक आता है— तं त्रयो वेदा अन्वसृज्यन्त| अथ ह सीता सावित्री| सोमँ राजानं चकमे| तस्या उ ह त्रीन् वेदान् प्रददौ| -तैत्तिरीय ब्रा०२/३/१०/१,३ इस मन्त्र में बताया गया है कि किस प्रकार सोम ने सीता- सावित्री को तीन वेद दिये|


उपररोक्त वाक्य को <<<<<<<<<<<|| पाखण्ड की धज्जियां ||>>>>>>>>>>>>



दुसरा भागः-


द्बितीय भाग में पाखण्डी की धज्विया को खण्डन किया गया ।।


अर्थात् कथावाचिकाओं की कुतर्क का खण्डन निम्न प्रकारः-

पाखण्डमत खण्डन व कथावाचिकाओं की कुतर्क खण्डन


ब्रह्मवादिनी शब्द का अर्थ वेद वादिनी नहीं क्योंकि मन्वादि प्रबल शास्त्रप्रमाणों से उसका सर्वथा निषेध प्राप्त है | ब्रह्म शब्द अनेकार्थावाची होता है इसका अर्थ तप वेद , ब्रह्मा , विप्र प्रजापति (ब्रह्मशब्दं तपो वेदो ब्रह्मा विप्रः) आदि होता है | वैसे भी सामान्य दृष्टि से ब्रह्म + वादिनी = ब्रह्म को कहने वाली यह अर्थ हुआ , ब्रह्म तो वस्तुतः आत्मतत्त्व को कहते हैं आत्मेति तु उपगच्छन्ति ग्राहयन्ति च ब्रह्मसूत्र ४/१/३ ) , यह ॐकारमय वेद भी उसी का वाचक है ( तस्य वाचकः प्रणवः – योगसूत्र १/२७) तूने ये वेदान्तप्रसिद्ध अर्थ क्यों न लिया; वेद ही क्यों लिया बांकी क्यों नहीं ? क्योंकि तुझे मर्कट -उत्पात मचाना है न इसलिए | इतना ही नहीं अपितु अन्न , प्राण , मन , विज्ञान , आनंद , सब को भी प्रसंग प्रकरण से ब्रह्म ही कहते हैं (तैत्तिरीयोप ० भृगुवल्ली ) संस्कृत के किसी भी शब्द का अर्थ करने से पूर्व उसके पूर्वापर प्रकरण , उसके मर्म को , उसके बह्वार्थों को जानना अत्यंत आवश्यक है , अन्यथा वही स्थिति होगी कि भोजनार्थ प्रवृत्त हो रहे व्यक्ति द्वारा नमक मंगाने के लिए सैन्धवमानय ! कहा गया और श्रोता लाया घोड़ा ! (क्योंकि सैन्धव शब्द के नमक और घोडा दो दो अर्थ होते हैं ) अस्तु , उक्त मर्म को समझाने से पूर्व पहले तुम्हारा ध्यान ‘ब्रह्म’ शब्द पर लाते हैं कि ब्रह्म कहते किसको हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में स्वयं वेद कहता है कि – ये समस्त प्राणी जिस निरतिशयं निर्विशेषं महत् तत्त्वम् तत्त्व से पैदा होते हैं , जिसमें स्थित रहते और जिस में प्रविष्ट होते हैं , वही जिज्ञास्य तत्त्व ब्रह्म है , उपनिषत्सु प्रतिपादितस्य तत्त्वस्य ‘ब्रह्म’ इति नाम |

यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते | येन जातानि जीवन्ति |

यत् प्रयन्त्यभिसंविशन्ति | तद्विजिज्ञासस्व | तद् ब्रह्मेति || – तैत्तिरीयोपनिषत् ३-१-३

इमानि भूतानि यतो जायन्ते, जातानि येन जीवन्ति, यदेव अभिसंविशन्ति प्रयन्ति, तदेव ब्रह्म,

तदेव विजिज्ञासस्व | अर्थात् – समस्तम् इदम् विश्वं यस्माद् उत्पद्यते, येनैव जीवति, यस्मिन्नेव च लीयते तदेव ब्रह्म | एवं समस्तस्यापि जगतः सृष्टिस्थितिलयकारणभूतं तत्त्वं वेदान्तेषु ब्रह्मशब्देन गीयते | सकलस्यास्य विश्वस्य ब्रह्म उपादानं निमित्तं च कारणं भवति | अतः ब्रह्म नैव कार्यं भवेत् | जगत्कारणत्वेन ब्रह्मण एव प्रतिपादितत्वात् कापिलसांख्यदर्शने प्रतिपादितं प्रधानं वा वैशेषिकदर्शने प्रतिपादितः परमाणुर्वा जगतः कारणं नैव भवति इत्यभिप्रायः ||

अस्तु , अब प्रश्न ये है कि ब्रह्म का ज्ञान कैसे होता है ? अब इसके उत्तर में आगे देखो –

वेद कहता है तपस्या से ब्रह्म को जानो क्योंकि तप ही ब्रह्म है – तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व| तपो ब्रह्मेति| – तैत्तिरीयोपनिषत् / भृगुवल्ली / ० १

अपनी तपस्या से पूर्वकाल में स्त्रियाँ वेद मन्त्रों का साक्षात्कार कर लेतीं थी, उनकी तपस्या क्या है ? स्वधर्म पर चलने से उनको वेद्य तत्त्व का ज्ञान हो जाता था वो तपस्या है स्वधर्मपालन, देव, द्विज, गुरु, प्राज्ञों का पूजन , आर्जव , इन्द्रियों पर निग्रह , अहिंसा , इसी से वे पापदेहा स्त्रियाँ शुद्धता को प्राप्त होती हैं | (देवस्य द्विजस्य आचार्यस्य पण्डितस्य च अर्चनम्, शुद्धता, आर्जवम्, ब्रह्मचर्यम्, अहिंसा च शारीरं तपः इत्युच्यते) –

देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम् | ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते || (-भगवद्गीता १४/१४ ) ऋषन्ति ज्ञानसंसारयोः पारं गच्छन्ति ऋषयः| ऋषी श गतौ नाम्नीति किः| रिषिर्हसादिश्च| विद्याविदग्धमतयो रिषयः प्रसिद्धाः| इति प्रयोगात्| स्त्रियां ऋषी च| इत्यमरटीकायां भरतः इति हि श्रूयते |अथवा ऋषन्ति अवगच्छन्ति इति ऋषयो मन्त्राः| · ऋषि दर्शनात् (नि०२|१९|१). · स्तोमान् ददर्शेत्यौपमन्यवः| · तद् यद् एतांस्तपस्यमानान् ब्रह्म (वेदं) स्वयम्भवभ्यानर्षत्, त ऋषयोऽभवन्, तद् ऋषिणामृषित्वम्| -निरुक्त २/१९/१ ऋषि गोत्र प्रवर्तक , दीर्घायु , मन्त्रसाक्षात्कर्ता, दिव्यद्रष्टा आदि हुए | दीर्घायुषो मन्त्रकृत ईश्वरा दिव्यचक्षुषः| बुद्धाः प्रत्यक्षधर्माणो गोत्रप्रवर्तकाश्च ये || (वायुपु० पूर्वार्ध ६१/९४ ) ऋषि शब्द का ही स्त्रीत्व विवक्षा में प्रयोग हुआ है ऋषिका , क्यों कहा है ऋषिका ? क्योंकि किसी एक समानधर्म से उसे वह कहा गया , यथा लोक में शौर्य या क्रौर्य आदि किसी सामान धर्म के आधार पर बालक को भी सिंह कह दिया जाता है (सिंहोsयं माणवकः) | क्या समानता है ? समानता है दीर्घायुत्व की , दिव्य-द्रष्टृत्व की , प्रत्यक्षा धर्मा होने की | स्त्रियाँ भी तो दिव्यदर्शिणी हो सकती हैं | किन्तु क्या कभी तुमने किसी ऋषिका के नाम से गोत्र सुना ? नहीं न ! क्यों ? क्या किसी शास्त्र में कभी स्त्रियों की शिष्या परम्परा सुनी ? कोई स्थान विशेष में पाठ शाला पढी , जहां उनको वेदाध्ययन कराया जाता था ? नहीं न ! वो इसलिए क्योंकि उनका ऋषिका होना ऋषियों के मार्ग की भांति न रहा | उनका सिद्धि प्राप्ति का मार्ग दूसरा है | इसी प्रकार वेदोक्य सीता , सावित्री आदि सभी शब्द लौकिक अर्थ तुल्य ग्राह्य नहीं , लौकिक शब्दों तथा वैदिक शब्दों के अर्थ में बहुत भेद होता है | जैसे लोक में कवि शब्द का अर्थ कविता करने वाला होता है किन्तु वेद में त्रिकालज्ञ , लोक में क्रतु का अर्थ यज्ञ होता है किन्तु वेद में इसी शब्द का अर्थ बुद्धि हो जाता है – अग्निर्होता कविक्रतु: (ऋग्वेद , अग्निसूक्त ५ ) वेद के एक ही शब्द का ब्राह्मण ग्रन्थ अनेक अर्थ प्रकाशित करते हैं, विचक्षणता के बिना इसे नहीं समझा जा सकता | बहुभक्तिवादीनि हि ब्राह्मणानि भवन्ति | पृथिवी वैश्वानर:, संवत्सरो वैश्वानरो, ब्राह्मणो वैश्वानर इति” (- निरुक्त ७/७/२४ ) अस्तु ,

शास्त्रकारों का कथन है कि मनुस्मृति के विरुद्ध जो स्मृति वचन है वह प्रशस्त नहीं माना गया है क्योंकि वेदार्थ के अनुसार निबद्ध होने से सर्वप्रथम मनु की मान्यता है (सर्वधर्ममयो मनु : ) , जैसा कि –

मनुस्मृति विरुद्धा या सा स्मृतिर्न प्रशस्यते |

वेदार्थोपनिबद्धत्त्वात् प्राधान्यं हि मनोः स्मृतेः | | तथाहि ——–>

यद् वै किञ्च मनुरवदत् तद् भेषजम् | ( तैत्तिरीय सं०२/२/१०/२)

मनु र्वै यत् किञ्चावदत् तत् भेषज्यायै | (- ताण्ड्य-महाब्रा०२३/१६/१७)

अथापि निष्प्रचमेव मानव्यो हि प्रजाः | ऋग्वे० १/८०/१६ अपि द्रष्टव्यम् |

……..ये तो हो गया पाराशर संहिता पर द्विविधा स्त्रियो ० और “पुराकल्पे हि नारीणां मौञ्जीबन्ध ० आदि का उत्तर |

अब सुनिए ब्रह्मसूत्रेण पवित्रीकृतकायाम् का उत्तर —>

ब्रह्मसूत्र शब्द विविध अर्थों वाला है , ब्रह्म शब्द के अर्थ तप , वेद , ब्रह्मा , विप्र , प्रजापति आदि माने गए हैं | अतः महाश्वेता स्वधर्म पालन रूप तपस्या से ही पवित्र काया हुई थी ऐसा सिद्ध होता है —->

ब्रह्मशब्दं तपो वेदो ब्रह्मा विप्रः प्रजापतिः इति वचनेन अत्र ब्रह्मसूत्रशब्दस्य तपः सूत्रेण पवित्रीकृतकायामिति तात्पर्यं समीचीनम् | बह्वर्थको हि ब्रह्मसूत्रशब्दः, तथाहि यज्ञोपवीतभिन्नार्थे – ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैरिति गीतायाम् |

अब आगे देखिये –

स्त्री का पति ही उसका गुरु है | शास्त्र कहता है –

गुरुरग्निर्द्विजातीनां वर्णानां ब्राह्मणो गुरुः |

पतिरेव गुरुः स्त्रीणां सर्वस्याऽभ्यागतो गुरुः ||

(-पद्मपुराण स्वर्ग॰५१/५१, ब्रह्मपुराण ८०/४७ )

अग्नि द्विजातियोँ का गुरु है, ब्राह्मण चारोँ वर्णोँ का गुरु है, एकमात्र पति ही स्त्रियोँ का गुरु है और अतिथि सबका गुरु है |’ स्त्रियों का जनेऊ संस्कार घोर पाखंड है , किं च –

वैवाहिको विधिः स्त्रीणां संस्कारो वैदिकः स्मृतः |

पतिसेवा गुरौ वासो गृहार्थोँऽग्निपरिक्रिया || (मनुस्मृति २/६७ )

‘स्त्रियोँ के लिये वैवाहिक विधि का पालन ही वैदिक-संस्कार (यज्ञोपवीत), पति की सेवा ही गुरुकुलवास और गृह-कार्य ही अग्निहोत्र कहा गया है |’

इस महामूर्ख मालवीय का परम पूज्य धर्मसम्राट् स्वामि श्री करपात्री जी महाराज ने ऐसा भ्रम भंग किया था कि याद कर गया था | ऋषिकेश में तीन दिन तक अपने सुई से लेकर सब्बल तक के सारे तर्क शास्त्रार्थ में ( जिसके मध्यस्थ जयदयाल गोयन्दका आदि रहे ) इसने प्रस्तुत किये , अंततः इस पाखंडी का वही हाल हुआ जो सिंह की खाल पहने हुए सिंह के सम्मुख आकर उसे ललकारने वाले सियार का होता है | पर बेशर्मों का क्या है भला ! अस्तु ,

लक्ष्मी ने भागवत विष्णु को सुनाई तो भला इससे स्त्रियों के व्यासासन पर भागवत की सिद्धि कैसे हो गयी लक्ष्मी कोइ स्त्री देह धारिणी मानव तो हैं नही , वे तो सबके हृदय मे व्याप्त स्वयं परमात्मतत्त्व हैं, और आत्मा को लौकिक स्त्रियों के तुल्य किसी एक जाति विशेष से जोड़ लेना ही मूर्खता है, ( त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारीति श्वेताश्वतरोप० ४/३ ) दूसरी बात ये है कि लक्ष्मी भी व्यासासन पर बैठकर विष्णु को भागवत नहीं सुनातीं अपितु भागवती वार्त्ता वे करती हैं , जिसका अभिप्राय है , भगवान की लीला कथाओं का परस्पर संवाद करना | संवाद अलग चीज है और व्यासासन पूर्वक भागवत अनुष्ठान संपन्न करना अलग | स्वयं श्री भगवान् गीता में कहते हैं कि – येषां चित्तं मयि संलग्नं भवति, येषाम् इन्द्रियाणि मयि सन्ति तादृशाः बुधाः भावसमन्विताः अन्योन्यं मां बोधयन्तः कीर्तयन्तः च सदा सन्तोषं प्राप्नुवन्ति, मय्येव च विहरन्ति यथा – –

मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् |

कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च || (-श्रीमद्भागवद्गीता १०/९ )

वे दृढ निश्चयवाले मेरे भक्तजन निरन्तर मेरे नाम और गुणोंका कीर्तन करते हुए तथा मेरी प्राप्तिके लिये यत्न करते हुए सदा मेरे ध्यानमें युक्त होकर अनन्य प्रेमसे मेरी उपासना करते हैं |

सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः |

नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते || (-श्रीमद्भागवद्गीता ९/१४)

स्वयं को वेद की अधिकारिणी बना कर जिस भागवत को ये स्त्रियां व्यासासन से सुनाना चाहती है, वह किस मुख से उसका पारायण करती हैं ? क्योंकि स्वयं श्रीमद्भागवत ही उनको अनधिकारिणी बता रही है यथा – स्त्रीशूद्रद्विजबन्धूनां त्रयी न श्रुतिगोचरा| (- श्रीमद्भागवत १/४/२५) महर्षि वेदव्यास से अधिक जानकार तो होंगे नहीं आप !

प्रत्येक द्वापर युग में विष्णु व्यास के रूप में अवतरित होकर वेदों के विभाग प्रस्तुत करते हैं| इस प्रकार अट्ठाईस बार वेदों का विभाजन किया गया| पहले द्वापर में स्वयं ब्रह्मा वेदव्यास हुए, दूसरे में प्रजापति, तीसरे द्वापर में शुक्राचार्य , चौथे में बृहस्पति वेदव्यास हुए| इसी प्रकार सूर्य, मृत्यु, इन्द्र, धनजंय, कृष्ण द्वैपायन अश्वत्थामा आदि अट्ठाईस वेदव्यास हुए| समय-समय पर वेदों का विभाजन किस प्रकार से हुआ, इसके लिए यह एक उदाहरण प्रस्तुत है| कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास ने ब्रह्मा की प्रेरणा से चार शिष्यों को चार वेद पढ़ाये—

(१) मुनि पैल को ॠग्वेद

(२) वैशंपायन को यजुर्वेद

(३) जैमिनि को सामवेद

(४) सुमन्तु को अथर्ववेद

महर्षि वेदव्यास के ये उत्तराधिकारी पुरुष ही थे , स्त्री नहीं और इनकी जो परम्परा चली वह भी पुरुषों में ही चली , जो अद्यावधि पर्यन्त स्व-स्व शाखाध्यायी ब्राह्मण पुरुषों में विस्तार को प्राप्त होकर व्याप्त है | केवल महर्षि वेदव्यास के साक्षात् शिष्यों अथवा उनकी शिष्य परम्परा में आने वाले पुरुषों को ही व्यास आसन पर बैठने का अधिकार है |

मनुस्मृति ने स्पष्ट किया है कि स्त्रियाँ निरिन्द्रिय, मन्त्ररहिता, असत्यस्वरूपिणी हैं- निरिन्द्रिया ह्यमन्त्राश्च स्त्रियोऽनृतमिति स्थिति:| —मनु० ९/१८

स्त्री पापयोनि है , उसके जन्म का कारण पाप है , इस विषय में गीता का यह श्लोक स्पष्ट प्रमाण है –

हे अर्जुन ! स्त्री, वैश्य, शूद्र या पापयोनि- चाण्डालादि चाहे जो कोई भी हों, वे यदि मेरे आश्रित हो, तो परमगतिको ही प्राप्त होते हैं –

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः |

स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् || (- श्रीमद्भगवद्गीता९/ ३२)

आक्षेप – यहाँ ‘पापयोनि’ –यह शब्द स्त्रियों वैश्यों आदि का विशेषण मानना आयुक्त है क्योंकि छान्दोग्योपनिषद् में वैश्य को उत्तमयोनि कहा अतः श्रुति विरुद्ध अर्थ अग्राह्य है |

समाधान – “रमणीयां योनिम्” विशेषण ही कहा है , “पुण्ययोनिम्” नहीं कह दिया है जो शुरू हो गए हो खंडन करने ; गीतोक्त “पापयोनि” का निषेध नहीं हुआ है यहाँ ! पापयोनि शब्द का अर्थ ही तुमको ज्ञात नहीं अन्यथा ये भारी भूल न करते ! स्त्री वैश्य तथा शूद्र के प्रति “पापयोनि” विशेषण की संगति करने वाले आचार्य शंकर स्वयं यहाँ स्पष्ट करते हैं कि द्विजत्व की प्राप्ति में पुण्यत्व नहीं है -ऐसी बात नहीं पुण्यत्व तो है , तभी तो द्विजत्व मिला | इसलिये वे इस मन्त्र पर लिखते हैं – /// रमणीयचरणेनोपलक्षितः शोभनोऽनुशयः पुण्यं कर्म येषां ते रमणीयचरणा: ////, //// ये तु रमणीयचरणा द्विजातयस्ते // आदि (तत्रैव शांकरभाष्य )

……………… अतः ज्ञातव्य ये है कि मानव योनि में जन्म लेने वाला जीव , स्त्री वैश्य और शूद्र – इन तीन के रूप में पाप के प्रभाव से जन्म लेता है और ब्राह्मण – इस योनि में पुण्य के प्रभाव से | याने पूर्वपुण्य का प्रभाव इनको मानव तो बना देता है किन्तु पाप का प्रभाव ही इनको ब्राह्मण पुरुष नहीं बनने देता , ये सिद्धान्त है अन्यथा तो ब्राह्मण ही होते वैश्य या शूद्र क्यों होते ? इसलिए पापयोनि हैं |जन्तूनां नरजन्म दुर्लभमतः पुंस्त्वं ततो विप्रता-इत्यादिपूर्वक यही मर्म भगवान् शंकर ने विवेकचूडामणि में समझाया है अर्थात् संसार में जन्म लेने वालों में पहले तो नर जन्म ही दुर्लभ होता है, फिर पुरुषत्व मिलना दुर्लभ है , मानव जन्म हो गया , पुरुष भी हो गया तो फिर ब्राह्मण होना तो और भी दुर्लभ होता है |

अभी अभिधारणा और दृढ होगी , आगे देखो –

प्रश्न – उत्तम योनि कह दिया तो स्पष्ट है अधम योनि तो है नहीं ! दिन है कह दिया तो स्पष्ट है कि रात नहीं है |

उत्तर – ये तर्क तो तब काम करता जब श्रुति ने पुण्ययोनि विशेषण श्रुति ने दिया होता , सो तो दिया नहीं | तो फिर कैसे कहते हो कि पापयोनि का न होना सिद्ध हुआ ? यहाँ रमणीय विशेषण पर “शास्त्रीयचरणम् आचरणम् कर्मं येषां तथाभूताः ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यसम्बन्धिनीं रमणीयां निजोद्धारक्षमां योनिम् आपद्यन्ते ” ऐसा राघवकृपाभाष्यकार का कथन है , (तत्रैव, राघवकृपाभाष्य पृष्ठ ५६०) याने के जिनको शास्त्रीय आचरणपूर्वक स्वयं का उद्धार करने की सक्षमता है वे हैं रमणीयचरण – ऐसा कह रहे हैं अर्थात् स्पष्ट है कि द्विजत्वप्राप्तिपूर्वक शास्त्रीय विधि-निषेध कासम्पादन करने वाली योनियाँ – ये अभिप्राय राघवकृपाभाष्यकार कहना चाहते हैं| (अर्थात् पुण्ययोनि के स्थान पर शास्त्रीय आचरण में सक्षम योनि -ऐसा अभिप्राय स्वीकृत किया है ) अब बताइये क्या कहोगे ?

पुनश्च यहाँ तो द्विजत्वप्राप्ति में सक्षम या कहिये शास्त्रीयविधिनिषेधों के पालन के अधिकारी योनियों का ही पृथकीकरण हुआ ! तो कहाँ पर गीतोक्त “पापयोनि ” विशेषण का खंडन हुआ है यहाँ भला ? ये पापयोनि द्विजत्व प्राप्ति की अधिकारिणी योनियाँ नहीं हैं ऐसा तो आचार्य शंकर ने कहा नहीं ! (अर्थात् न हैं कहा न नहीं हैं कहा ), वे तो उतना ही बोल रहे हैं जितना कि अखण्डनीय सिद्धान्त है , फिर आक्षेप किस आधार पर ?

पापयोनि, पुण्ययोनि , पापकर्मा , पुण्यकर्मा – प्रत्येक शब्द स्वयं में अलग -अलग अभिप्राय लिए है | पुण्यकर्मा होकर पाप – प्राधान्यत्वेन पापयोनि हो सकता है, पापकर्मा होकर पुण्य-प्राधान्यत्वेन पुण्ययोनि हो सकता है | -ये शास्त्रीय सिद्धान्त है |

अस्तु , आगे चलिए –

क्या ये सिद्धांत है कहीं वर्णित कि द्विजत्व की अधिकारिणी योनि पापयोनि हो ही नहीं सकती ? “पुण्ययोनि” विशेषण यदि द्विजमात्र को प्राप्त हो जावे तब तो आपका मत संगतहो सकता है किन्तु ऐसा भी नहीं ; ये तो केवल ब्राह्मण को ही श्री भगवान द्वारा स्वीकृत है |

किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या ——तत्रैव गीतायाम् ९/३३

यहाँ पुण्या से पुण्ययोनयः – ऐसा ही अर्थ उचित है क्योंकि पीछे से पापयोनि विषयकपूर्वार्ध स्पष्ट हुआ है |

बांकी इस स्त्रियो वैश्यास्तथा० पर वेंकटनाथ वेदान्तदेशिक ने इस श्लोक की व्याख्या पर देखो कैसे समझाते हैं आप हठधर्मियों को –

///त्रैवर्णिकस्य विद्यादिमतोsपि वैश्यस्य शूद्रादिभिः सह पापयोनित्वेन परिगणनं सत्रानधिकारित्वात् /// ……इस प्रकार सविस्तार आप आक्षेपकर्त्ताओं की हठधर्मिता की धज्जियां वेदान्तदेशिकाचार्य ने सविस्तार उडाई ही की है , स्वयं पढ़ना उठाकर ,तुम्हारे लिए इतना संकेत ही बहुत है ।









 
 
 

न विटा न नटा न गायका न परद्रोहनिबद्धबुद्धय: । नृपसद्मणि नामको वयं कुचभारोन्नमिता न योषित:।।


न हम विट( परस्त्री से प्रेम करने वाले लम्पटी) हैं न नट हैं, न गवैया(गायक) हैं, न दूसरों से द्वेष रखने वाले हैं, न तो कुचों के भार से झुकी हुई स्त्रियाँ ही हैं, फिर हमको धनीयों से क्या सम्बन्ध हैं ?धोनीयों के पास तो वे लोग जाया करते हैं जो विट ,नट, गायक हुया करता हैं, निस्पृह व्यक्ति वह नही जाते ।

तात्पर्य: जो निस्पृह सन्त है वह धनियों से सम्वन्धों नही रखते हैं। भाले ही उनके पास धन या कोई भोगसामग्री क्युओं न आ जाय फिर भी बह कोई प्रकार भोगों कि उपभोग नही करते हैं । जो व्यक्ति संसार से विरक्त होकर केवल भगवतोन्मुखी हो गया हैं वह व्यक्ति केवल आपना ध्यान ज्ञान अपनी ईष्टदेव मैं ही लगाता है, न वह कोई धनादि व कोई भोगेच्छा की मांग नही करता हैं, जो सत्य ही श्रीठाकुरजी मैं मनोनिवेश किया हैं उनके व्रह्माण्डके सारे भोगादि एवं अनन्तकोटी ब्रह्माण्ड के अधिपति पदभी मिल जाय तो वह कभी स्वीकार नही करता हैं! तो उनकों ईह संसार कि किञ्चित भोगों को उपभोग करने की इच्छा न हो सकता है ना वह उपभोग करता है। जो विरक्त सन्त हैं सच्ची मै निस्पृह है वह जगतके भोग्यवस्तु, धनाढ्य व्यक्त्यादि से दुरी वनायी रखती है। उनके पास भोग्यवस्तु सुलभ होता हैं फिर भी बह भोग्यवस्तुओं का त्याग करते है लगन से आपनी ईष्टदेवकी भजनमैं प्रवृत्त होकर दिव्यानंद का उपभोग करता है वह सच्ची निस्पृह सन्त बैष्णव कहलाता है ।

वैराग्य शतक: श्लोक संख्या: 23 तात्पर्य: दासानुदास श्रीरघुनाथ दास

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