
श्रीरामरायजी
- Gouranga Virudabali
- Nov 11
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श्रीरामरायजी
बिप्र सारसुत घर जनम, रामराय हरि रति करी।। भक्ति ज्ञान, वैराग्य, जोग, अन्तर गति पाग्यौ। काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, मतसर सब त्याग्यौ ।। कथा कीरतन मगन सदा आनन्द रस झूल्यौ। सन्त निरखि मन मुदित, उदित रवि पंकज फूल्यौ।। बैर भाव जिन द्रोह किय, तासु पाग खसि भ्वै परी। बिप्र सारसुत घर जनम, रामराय हरि रति करी ।। १६७ ।।
भावार्थ-सारस्वत ब्राह्मण वंश में जन्म लेकर श्रीरामरायजी ने भगवान् में प्रेम किया। आपकी चित्तवृत्ति, ज्ञान, वैराग्य और भक्तियोग में सर्वदा पगी रहती थी। काम, क्रोध, अहंकार, लोभ, मोह, ईर्ष्या आदि मायिक विकारों को आपने सर्वथा छोड़ दिया था। आप सर्वदा भगवत्कथा-कीर्तन में मग्न होकर इसके आनन्दमय अनुभव से झूमते रहते थे। सन्तों को देखकर आपका मन उसी प्रकार खिल जाता था जैसे सूर्य को देखकर कमल का पुष्प। जिन दुष्टों ने आपसे द्वेष किया, आपको नीचा दिखाना चाहा उनकी पगड़ी शिर से पृथ्वी पर गिर गई अर्थात् उन्हें स्वयं ही नीचा देखना पड़ा।।१६७ ।।
भक्ततोषिणी टिप्पणी-बेर भाव..... भ्वें परी जो भी दुष्ट आपसे द्रोह करता आप उससे कुछ नहीं कहते-सुनते थे। तब स्वयं परमात्मा उसे दण्ड देते। दुष्ट को तमाचा लगता, शिर की पगड़ी जमीन में गिर पड़ती लेकिन कोई दिखाई नहीं पड़ता था। जब श्रीरामरायजी से क्षमा माँगता तभी तमाचा लगना बन्द होता था। एक बार इब्राहीम लोदी ने श्रीरामरायजी के पास नागा सन्तों की जमात देखकर बोला-आप नागाओं को क्यों एकत्रित कर रखा है। राजद्रोह की तैयारी कर रहे हैं इसलिए इन्हें भगा दो अन्यथा कैद कर लिए जायेंगे। ऐसा कहने पर अचानक किसी ने थप्पड़ मारा और इब्राहीम लोदी की टोपी गिर गई। कोई दिखाई नहीं पड़ा। चमत्कार देखकर बोला-महाराज सेवा की आज्ञा दो। मैं आपके लिए मकान बनवा दूँ। आपने कहा कि अब किसी साधुओं को सताना नहीं, हमारे लिए वृक्ष और लताएँ ही ठीक हैं। अब हमें कभी मत बुलाना।
विशेष चरित्र-श्रीरामरायप्रभु का जन्म रावी नदी के तट पर बसे लाहौर (पंजाब) में वि.सं. १५४० वैसाख शुक्ल ११ मध्याह्न में हुआ। आपके पिता श्रीगुरुगोपालजी
और माता श्रीयशोमतिजी थीं। परम्परागत घर में विराजमान श्रीगीतगोविन्द के कर्ता श्रीजयदेवजी के ठाकुर श्रीराधामाधवजी ने श्रीगुरुगोपालजी को स्वप्नादेश दिया कि मेरा चरणामृत अपनी धर्मपत्नी को पिलाओ उससे एक महान चमत्कारी भक्तपुत्र उत्पन्न होगा। पादोदक पान करते ही यशोमतिजी को ऐसा अनुभव हुआ कि किसी शक्ति विशेष ने मेरे उदर में प्रवेशकर मुझे कृतार्थ किया। किसी के मत से श्रीरामेश्वरम् की यात्रा में वहीं जन्म हुआ। इसलिए इनके रामेश्वर, रामराय, रामदास और रामगोपाल आदि नाम पड़ गए। ग्यारह वर्ष की अवस्था में यज्ञोपवीत संस्कार हुआ। पिता ने इन्हें गायत्री के साथ श्रीराधा गोपाल मंत्र दिया। जो यमुना पुलिन धीर समीर वृन्दावन में श्रीजी के द्वारा श्रीजयदेवजी को प्राप्त हुआ था। श्रीरामरायजी के प्राकट्य के १० वर्ष बाद श्रीरामचन्द्रगोपालजी का जन्म हुआ। सब लोग इन्हें चित्रासखी का अवतार मानते थे। श्रीरामरायजी ने वि.सं. १५५२ बसन्त पञ्चमी केदिन श्रीजयदेवजी की जन्म जयन्ती के उपलक्ष्य में बिना सामग्री मँगवाये एक हजार ब्राह्मणों को भोजन कराया इससे आपकी महिमा सर्वत्र विख्यात हो गई। ठाकुर श्रीराधामाधवजी ने आज्ञा दी कि तुम वृन्दावन जाओ उसके बाद मैं चन्द्रगोपाल के साथ आऊँगा। आदेश पाकर योगबल से हरिद्वार पहुँच गये। वहाँ नाना के बड़े आता श्रीआसुधीरजी मिले। उन्हें भी वृन्दावन ले आये। मार्ग में उपब्रज (अलीगढ़) में प्रसादी नाम के ब्राह्मण सन्त सेवा करते थे उनके यहाँ विश्राम किया। उनकी दीनता देखकर आपने अपनी मुद्रिका उतारकर दे दिया और आशीर्वाद दिया कि खूब लक्ष्मी से सम्पन्न हो जाओ और श्रीराधामाधव का भजन करो। कालान्तर में श्री से सम्पन्न होने पर श्रीराधामाधव की सेवा-पूजा करने लगे। श्रीआसुधीर को सम्पूर्ण व्रजयात्रा करवाई। ब्रजवासियों की एवं ब्राह्मणों की खूब सेवा करते, इससे इन्हें सब लोग 'प्रभु' कहने लगे।
एक दिन श्रीरामरायजी वृन्दावन में वास करने की इच्छा प्रकट करी। लोगों ने समझाया कि यहाँ हिंसक जानवर रहते हैं। लेकिन एक दिन सभी को सोते हुए छोड़कर वृन्दावन पहुँच गये। यमुना पुलिन धीर समीर में आपको श्रीराधामाधवजी के दिव्य दर्शन हुये। श्रीठाकुरजी ने आदेश दिया कि पहले तीर्थटन करो तब यहाँ वास करना। तीर्थाटन करते हुए काशी पहुँचे। विद्वानों ने प्रभावित होकर आपकी शोभायात्रा निकाली। उसमें श्रीमाधवेन्द्रपुरी, राजेश्वर तीर्थ, प्रकाशानन्द सरस्वती, श्रीबल्लभाचार्य, श्रीगोकुलानन्द, विद्या सागर, गोविन्द कवि, रंगनाथ एवं विश्वनाथ आदि महापुरुष उपस्थित थे। ईर्ष्यावश जिन्होंने शास्त्रार्थ किया उन्हें पराजित करके भक्ति की स्थापना की। हजारों लोगों को प्रसाद पवाकर सन्तुष्ट किया। श्रीनित्यानन्द महाप्रभु ने प्रसन्न होकर इन्हें अपनी ओर आकर्षित किया। श्रीमाधवेन्द्रपुरीजी श्रीरामरायजी को बताया कि ये संकर्षण भगवान हैं इनसे दीक्षा ले लो। गुरुत्व को स्वीकार करो। आचार्य होकर भी इन्होंने उनके गुरुत्व को स्वीकार किया। आपके उत्कृष्ट दैन्य को देखकर श्रीवल्लभाचार्यजी बहुत सन्तुष्ट हुये। इसके पश्चात् श्रीरामरायजी श्रीनित्यानन्दजी के साथ नवद्वीप पधारे और श्रीचैतन्य महाप्रभुजी का दर्शन किया। उन्हें अष्टपदी सुनाया। प्रसन्न होकर श्रीचैतन्यमहाप्रभुजी ने कहा- 'आप साक्षात् रामभद्र हैं।' मैं श्रीवृन्दावन में आकर आपसे मिलूँगा। अपने साथ भूगर्भ और लोकनाथ को ले जाओ। आप श्रीजगन्नाथ भगवान् का दर्शन करते हुए वृन्दावन आये। श्रीमाधवेन्द्रपुरीजी ने गोवर्धन में आकर वि.सं. १५६० में श्रीनाथजी को प्रकट किया। जगन्नाथपुरी में लाहौर के भक्तों से भेंट हुई तो उन्हें वृन्दावन आदि का दर्शन कराकर लाहौर विदा कर दिया। इधर पुत्र के वियोग में श्रीगुरुगोपाल और यशोमतिजी ने शरीर त्यागकर परमधाम गमन किया। यह जानकर आपने चन्द्रगोपालजी को स्वप्नादेश दिया। वे श्रीराधामाधवजी को लेकर पत्नी सहित वृन्दावन आ गये और वंशीवट स्थान में ठहरे। आप श्रीराधामाधवजी के दर्शन करके विभोर हो गये। इन्हें छाती से लगाकर श्रीठाकुरजी ने आज्ञा दी कि श्रीवृन्दावन रस की वर्षा करो, तुम्हारी वाणी 'आदिवाणी' कहलायेगी।
आदिवाणी प्रसंग-एक ब्रजगोपी अपने घर में सोई हुई थी। श्रीकृष्ण आये और लौट गये। अतः उसे नींद बहुत बुरी लगी, वह उसे बेचने लगी। दूसरी खरीददार सखी मिल गई, उसने बताया कि मैं सो रही थी, स्वप्न में प्यारे श्यामसुन्दर मेरे पास आये। मैं मिलने चली इसी बीच मेरी नींद खुल गई। मैंने जागकर गँवाया और तूने सोकर। गोपी भाव में निमग्न प्रभुजी आदिवाणी में गाते हैं- "निंदरिया साँचे विष की भरी। मेरे लालन प्यारे फिरि गए कैसी खोटी घरी। अब जीऊँ का विधि सुनु सजनी कहाँ गई जीवन जरी।। देखि कहूँ जो मिलै बुलावहुँ बरसत आँखिन झरी। 'रामराय' या नींदहि बेचूँ हौ तौ भई बावरी।।" प्यारे श्यामसुन्दर श्रीराधारानी का मुखकमल दर्शन करके कहते हैं यथा- "तेरौ मुख पियूष पंक प्यारी प्रगटे तामें द्वै इन्दीवर। मेरी मन मत्त मधुप सो जाय बस्यौ पुतरी ह्वै तिन अन्तर। रस लोमी एक सौं अनेक भयौ तौहू न तृपति मानत रस कन्दर। 'श्रीरामराय' पुनि कपोल दल तिल बन्यौ मस्तक स्याम विन्दीवर।।"
श्रीगौरांग महाप्रभु वृन्दावन पधारे और अक्रूर घाट पर ठहरे। श्रीरामरायजी नित्य गीतगोविन्द सुनाकर प्रसन्न करते। महाप्रभुजी ने गोपालजी के दर्शनों की इच्छा की, लेकिन श्रीगिरिराजजी के ऊपर पैर नहीं रखना चाहते थे। उसी समय अकस्मात् यवन आतंकवश वैष्णव लोग श्रीनाथजी को गाठौली ले आये। तब श्रीमहाप्रभुजी ने दर्शन किया। इस प्रकार ब्रज में महाप्रभुजी का संग सुख आपको प्राप्त हुआ। श्रीगोपालजी के प्राकट्य का समाचार पाकर श्रीमद्वल्लभाचार्यम जी यहाँ पधारे। आपसे पूर्व परिचय थाअतः। श्री माधवेन्द्रपुरीजी ने गोवर्धन पर श्रीनाथजी का प्रकट किया था। उस समय मंदिर अभी निर्मित नहीं हुआ था, और वे अपने साथ दो बंगाली वैष्णवों को लेकर श्रीनाथजी की सेवा करते थे।
वि.सं. १५६० में श्रीनाथजी की आज्ञा से श्री माधवेन्द्रपुरीजी चन्दन और कर्पूर लेने के लिए उड़ीसा की ओर प्रस्थान किए। उस अवसर पर उन्होंने श्रीनाथजी की सेवा श्रीरामराय प्रभु को सौंप दी।
यह सेवा-सोपान का कारण यह था कि श्रीरामराय प्रभु श्रीनित्यानंदप्रभु के शिष्य थे, और श्रीनित्यानंदप्रभु तथा श्रीमाधवेन्द्रपुरीजी – दोनों ही एक ही गुरु-परम्परा में गुरु-भाई थे। अतः सेवा योग्य पात्र के रूप में श्रीरामराय प्रभु को यह उत्तरदायित्व सौंपा गया।
श्री माधवेन्द्रपुरीजी दो बंगाली वैष्णवों को गोवर्धन में श्रीनाथजी की सेवा हेतु छोड़ गए। श्रीरामराय प्रभु का पुष्टिमार्गीय वैष्णवों से भी सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध था, अतः उनकी भी इच्छा हुई कि वे इस सेवा में सम्मिलित हों। फलतः श्री वल्लभाचार्यजी के शिष्य भी श्रीनाथजी की सेवा में संलग्न हो गए।
इससे यह सिद्ध होता है कि गौड़ीय वैष्णव किसी भी अन्य संप्रदाय से द्वेष नहीं रखते, बल्कि सद्भाव और सहयोग की भावना रखते थे।
कुछ समय पश्चात् श्रीरामराय प्रभु किसी कारणवश जगन्नाथपुरी चले गए। उनके अनुपस्थित रहते बंगाली वैष्णव स्वतंत्र रूप से श्रीनाथजी की सेवा करते रहे। धीरे-धीरे पुष्टिमार्गीय वैष्णवों में यह भावना उत्पन्न हुई कि —
“ये बंगाली वैष्णव तो स्वतंत्र रूप से श्रीनाथजी की सेवा कर रहे हैं, जबकि श्रीनाथजी तो हमारे ही आराध्य हैं।”
यह विचार धीरे-धीरे द्वेष में बदल गया, और उन्होंने बंगाली वैष्णवों पर अनेक अत्याचार किए, ताकि वे श्रीनाथजी की सेवा छोड़ दें। पुष्टिमार्गीयों का यह भी कहना था कि —
“वे दोनों बंगाली वैष्णव तो केवल भोजन और निवास करते हैं; उन्हें सेवा करना नहीं आता, सेवा तो केवल हमें ही आती है।”
परंतु यह कथन सर्वथा असत्य था। वास्तव में जितनी निष्ठा, स्वच्छता और प्रेम से बंगाली वैष्णव सेवा करते थे, वैसी सेवा और कहीं दुर्लभ थी।
जब श्रीरामराय प्रभु जगन्नाथपुरी से लौटे, तब तक विवाद अत्यधिक बढ़ चुका था। उस समय भारत में अकबर का शासन था, और यह विवाद दरबार तक पहुँचा। अकबर ने निष्पक्षता से दोनों पक्षों की बात सुनी और समाधान निकालने का प्रयास किया।
गौड़ीय तथा पुष्टिमार्गीय – दोनों ही पक्षों का विश्वास श्रीरामराय प्रभु पर था। सबका मत था कि —
“जिसे श्रीरामराय प्रभु श्रीनाथजी की सेवा का अधिकार देंगे, वही इसके वास्तविक अधिकारी होंगे।”
सबको यह विश्वास था कि श्रीरामराय प्रभु गौड़ीय वैष्णव परम्परा से हैं, अतः वे सेवा गौड़ीयों को ही देंगे। परंतु ऐसा नहीं हुआ —
उन्होंने श्रीनाथजी की सेवा पुष्टिमार्गीयों को सौंप दी।
इस निर्णय का कारण यह बताया जाता है कि श्री वल्लभाचार्यजी ने अत्यन्त विनम्रता से श्रीरामराय प्रभु से निवेदन किया —
“यदि यह सेवा पुष्टिमार्गीयों को नहीं मिलेगी, तो मैं इसी क्षण अपने प्राण त्याग दूँगा।”
यह सुनकर श्रीरामराय प्रभु ने विचार किया —
“हमारे गौड़ीयों के पास तो पहले से ही श्रीगोविंददेव, श्रीगोपीनाथ और श्रीमदनमोहन जैसे विग्रह हैं; परंतु पुष्टिमार्गीयों के पास एक भी विग्रह नहीं है।”
इस करुणा और समन्वय की भावना से प्रेरित होकर उन्होंने श्रीनाथजी की सेवा पुष्टिमार्गीयों को सौंप दी।
उनका यह निर्णय संप्रदायिक स्वार्थ से रहित, व्यापक वैष्णव-एकता की भावना से प्रेरित था।पुष्टिमार्गीयों ने बादमें मन्दिर बनवाया और सेवा तथा भोगराग की विशेष व्यवस्था की। आपने बंगाली वैष्णवो को सेवा से नहीं हटाया। उस विवाद में आपने बल्लभकुल का ही पक्ष लिया अतः बंगाली वैष्णव आपसे असन्तुष्ट हुए। बारह वैष्णव वार्ता में लिखा है कि किसी कारण से श्रीरामरायजी कीचर्चा गौड़ीय साहित्य में बहुत कम हुई। श्रीजीव गोस्वामीजी प्रपंच से दूर होने के कारण श्रीरामरायजी की 'संदर्भ' के मंगलाचरण में आपकी वन्दना की है। यथा- "बन्दे श्रीपरमानन्दं भट्टाचार्य सुखालयम्। रामरायं तथा वाणी विलासं चोपदेशकम्।।" एक बार श्रीरामरायजी गोकुल दर्शन करने गये तो श्रीगोकुलनाथजी का दर्शन करके फिर विट्ठलनाथजी से मिले। उन्होंने आपकी बहुत प्रसंशा की। प्रसंशा सुनकर आप बोले-अरबी घोड़ा यदि तुर्की चाल चलता है तो उसकी लोग विशेष बड़ाई नहीं करते हैं परन्तु खच्चर तुर्की चाल चले तो सभी देखने जाते हैं और बड़ाई करते हैं। ऐसे ही हंस की हंसता यदि कौवे में हो तो उसे बड़प्पन मिलता है। यह सुनकर गोसाईंजी बहुत प्रसन्न हुए। अन्तिम समय में यातायात बन्द करके वनविहार और वंशीवट में रहकर भजन ध्यान करते रहे। उसी समय आपने ब्रह्मसूत्र पर गौरविनोदिनी वृत्ति लिखी। इनके छोटे भ्राता श्रीचन्द्रगोपालजी ने वृत्ति के ऊपर भाष्य किया। श्रीरामरायजी के संस्कृत में द्वादश ग्रन्थ हैं। आदि वाणी और श्रीगीतगोविन्द पर पदावली ये भाषाग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। इस प्रकार वि.सं. १५४० तक आपकी दिव्य जीवनलीला रही। आपके १२ प्रधान शिष्य थे। भक्तमाल की टिप्पणी में यह कवित्त पाया जाता है। यथा-"भक्ति भगवानदास ज्ञान को गरीबदास, बाँको वैराग्य विष्णुदास को दिखानो हैं। जोग को जुगलदास अन्तरगति राधानाथ, काम को किशोर क्रोध केशव को मानो है।। मद को मनोहर लोभ लाखादास मोह मधु, मत्सर हरिदास त्याग तीरथ पिछानो है। कथा तत्व भागवत कीर्तन सुख रामराय या विधि सों बारह गुरु संग लपटानो है।"
श्रीभगवानदासजी इनका चरित्र छ. १८८ क. ६२० में आ चुका है। लाहौर विजय के बाद आप सद्गुरुजी की खोज करते हुए वृन्दावन आये। श्रीरामरायजी की प्रशंसा सुन कर उनसे दीक्षा के लिए वहाँ आये। लेकिन श्रीरामरायजी स्नान के वहाने चले गये क्योंकि ये धनी मानी से बहुत दूर रहते थे। श्रीभगवानदासजी की सच्ची निष्ठा थी अतः बैठे ही रहे और श्रीठाकुरजी के श्रृंगार के दर्शन किये। गद्दी में एक मुट्ठी असर्फी भेंट किये। विष्णुदासजी फूल लेने लए। गरीबदासजी सोहनी की सेवा करने लगे। सर्वप्रथम असर्फी को बूहारू से टालकर बोले-इन्हें अपने पास रख लो। श्रीभगवानदासजी ने सोचा-जब शिष्य इतने त्यागी हैं तो गुरुदेव को क्या कहना। श्रीभगवानदासजी ने श्रीरामरायजी से प्रार्थना की कि हे प्रभो! मैं संसार में बहुत भटका हूँ। आप अपने श्रीचरणों में स्थान दीजिये। मैं आपका सेवक हूँ। श्रीरामरायजी ने कहा-राज्यादि का त्याग करके धन को चार भाग में बाँट दो। एक भाग श्रीनाथजी की सेवा में, दूसरा श्रीहरिदेवजी के निमित्त, तीसरा भाग मानसी गंगाके घाटों के लिए चौथा भाग अपने सगे सम्बन्धियों को दे दो। राजा ने ऐसा ही किया। गुरुदेव की कृपा से विरक्त वेष धारण करके भक्ति करने लगे। कीर्तन पदावली की रचना किये। आपके पदों में प्रायः 'कह भगवान हित रामराय प्रभु' यह छाप मिलती है। एक बार वृन्दावन में श्रीमधुसूदन सरस्वती की सभा में उपस्थित होकर अनेक रसिकों के समक्ष यह पद गाया "और कोउ समुझौ सो समुझौ हमको इतनी समझ भली। ठाकुर नन्दकिशोर हमारे ठकुराइन वृषभानु लली ।। सुबल आदि सब सखा श्यामसंग श्यामा संग ललितादि अली। ब्रजपुर वास शैलवन विहरन कुंजन-कुंजन रंग रली।। इनके लाड़-चाव सेवा सुख भाव बेलि रस फलनि फली। कह भगवान हित रामराय प्रभु सबते इनकी कृपा बली।।" एक बार एक विद्वान सद्गुरु की खोज के लिए शास्त्रार्थ करके विजय पत्र लिखवा रहा था। संयोग से श्रीभगवानदासजी से भेंट हो गई और अपना सिद्धान्त सुनाया। जिसे सुनकर वह इनका अनुयायी हो गया। पद- "श्याम श्याम श्याम रटत प्यारी आपुहि श्याम भई। पूछत फिरत सकल सखियन सों प्यारी कहाँ गईं।। वृन्दावन वीथिन यमुना तट श्रीराधे श्रीराधे। सखी संग की यह सुख निरखें सकल मौन ही साधे।। गुर्वी प्रीति कहा न करावै क्यों न होइ गति तैसी। कह भगवान हित रामराय प्रभु लगन लगे तौ ऐसी।।" आपकी परमधाम की यात्रा के समय सभी सन्त एकत्रित होकर संकीर्तन करने लगे। किसी ने आपसे पूछा-इस समय आप किसका ध्यान कर रहे हैं। आपने अन्तिम पद तम्बूरा से गाकर सबको सुनाया और लीलाधाम में पहुँच गये। पद- "मैं चली री तहाँ जहाँ मोहन मुरली मधुर-मधुर धुनि बाजै री। जमुना पुलिन सुभग वृन्दावन मोहन मदन विराजै री।। सजल नील घनश्याम वरन तन लसत दामिनी छाजै री। मोर मुकुट की शोभा बरनौं इन्द्रधनुष दुति लाजै री।। घूँघर वाली अलकें झलकै चन्दन तिलक ललाटै री। अमल कमलदल मंजुल नैंना जोवत हैं मम बाटै री।। कुण्डल किरन कण्ठ कौस्तुभमणि आनंद मुख्य प्रकासी री। देखे बनै वह चरन घरन गति कौतुक कुंज निवासी री।। जाकौ मन मिलि रह्यौ कृष्ण सों ताकौ अकथ कहानी री। कह भगवान हित रामराय प्रभु सुमिरन माँझ समानी री।"
श्रीगरीबदासजी- ये कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। बचपन में माता-पिता के परलोक सिधार जाने पर आप श्रीरामगिरिजी से संन्यास की दीक्षा ली। श्रीरामगिरिजी अद्वैत
समर्थक एवं शुष्क ज्ञानी थे। भक्ति को मायिक खेल बताते। गुरुदेव ने आपका नाम
गोविन्दगिरि रक्खा। एक बार सोरो गंगाघाट में श्रीरामरायजी को ये दोनों मिले और
शास्त्र चर्चा होने लगी। ठाकुरजी की सेवा का समय होने से विशेष चर्चा न करके
दूसरे दिन भिक्षार्थ दोनों को अपने यहाँ बुलाया। प्रसाद पाने के बाद शास्त्र चर्चाआरम्भ हुई। श्रीरामगिरिजी ने कहा- 'सत्यं ब्रहा जगन्मिथ्या' अर्थात् ब्रह्म सत्य है, संसार झूठा है। श्रीरामरायजी ने कहा जब ब्रह्म सत्य है तो जगत कैसे झूठा हो सकता है 'हरिरेव जगत् जगदेवहरिः' तथा 'सर्वं खल्विदं ब्रह्मा' और 'वासुदेवः सर्वमिति इदं हि विश्वं भगवान्' आदि उपनिषद्, गीता और श्रीमद्भागवत के प्रमाणों से सिद्ध करके बताया तो श्रीरामगिरिजी मौन हो गये। उस समय गोविन्दगिरि ने श्रीरामरायजी से वैष्णवीय शिक्षा-दीक्षा ली और शुष्क ज्ञान का अहंकार दूर हो गया। श्रीरामरायजी ने इन्हें श्रीराधामाधवजी की फूलसेवा प्रदान की। इनका नाम गरीबदास पड़ा। इन्होंने तीन ग्रन्थ लिखे, श्रृंगार शतक, आनन्द शतक और वृन्दावन शतक। यथा- "श्रीराधामाधव स्वयं मूर्तिमान श्रृंगार। सब श्रृंगारन को प्रकट इनहीं सो श्रृंगार। गूढ़ भाव अंकुर सोई श्रृंग नाम विख्यात। आर नाम रस को कह्यौ सो श्रृंगार कहात।। प्रथम नाम आनन्द है पाछे परमानन्द। पूर्णानन्द आनन्द श्रीकृष्ण सच्चिदानन्द।। जो चाहत सो सदा सर्व जग आनन्द चाहैं। सुर नर मुनि के प्रान सोई आनन्द सुधा हैं।। विषयानन्द विलीन जीव डूबे भव सागर। जो श्रीकृष्णानन्द प्रकट त्रयलोक उजागर।। श्रीवृन्दावन धाम सों धाम न दूजो मित्र। जहाँ मिले ही रहत हैं जमुना पुलिन पवित्र ।। जमुना पुलिन पवित्र बालुका शोभा बरनी। शीतल मंद सुगंध त्रिविध सुख वायु विहरनी।। रमा शची रति रची विरंची शिव मन हरनी। श्रम न होय छिन पलक ध्यान करते भव तरनी।। रामराय गुरु चरन शरन राजे रज मंदा। दास गरीब सु प्रान प्रेम जीवन श्रीवृन्दाआरम्भ हुई। श्रीरामगिरिजी ने कहा- 'सत्यं ब्रह्म जगन्मिथ्या' अर्थात् ब्रह्म सत्य है, संसार झूठा है। श्रीरामरायजी ने कहा जब ब्रह्म सत्य है तो जगत कैसे झूठा हो सकता है 'हरिरेव जगत् जगदेवहरिः' तथा 'सर्व खल्विदं ब्रह्म' और 'वासुदेवः सर्वमिति इदं हि विश्वं भगवान्' आदि उपनिषद्, गीता और श्रीमद्भागवत के प्रमाणों से सिद्ध करके बताया तो श्रीरामगिरिजी मौन हो गये। उस समय गोविन्दगिरि ने श्रीरामरायजी से वैष्णवीय शिक्षा-दीक्षा ली और शुष्क ज्ञान का अहंकार दूर हो गया। श्रीरामरायजी ने इन्हें श्रीराधामाधवजी की फूलसेवा प्रदान की। इनका नाम गरीबदास पड़ा। इन्होंने तीन ग्रन्थ लिखे, श्रृंगार शतक, आनन्द शतक और वृन्दावन शतक। यथा- "श्रीराधामाधव स्वयं मूर्तिमान श्रृंगार। सब श्रृंगारन को प्रकट इनहीं सो श्रृंगार। गूढ़ भाव अंकुर सोई श्रृंग नाम विख्यात। आर नाम रस को कह्यौ सो श्रृंगार कहात।। प्रथम नाम आनन्द है पाछे परमानन्द। पूर्णानन्द आनन्द श्रीकृष्ण सच्चिदानन्द ।। जो चाहत सो सदा सर्व जग आनन्द चाहें। सुर नर मुनि के प्रान सोई आनन्द सुधा हैं।। विषयानन्द विलीन जीव डूबे भव सागर। जो श्रीकृष्णानन्द प्रकट त्रयलोक उजागर।। श्रीवृन्दावन धाम सों धाम न दूजो मित्र। जहाँ मिले ही रहत हैं जमुना पुलिन पवित्र ।। जमुना पुलिन पवित्र बालुका शोभा बरनी। शीतल मंद सुगंध त्रिविध सुख वायु विहरनी।। रमा शची रति रची विरंची शिव मन हरनी। श्रम न होय छिन पलक व्यान करते भव तरनी।। रामराय गुरु चरन शरन राजे रज मंदा। दास गरीब सु प्रान प्रेम जीवन श्रीवृन्दा।।"
श्रीविष्णुदासजी-आप आगरे के सबसे बड़े सराफे के दुकानदार थे। एक बार श्रीरामरायजी इनकी दुकान में आभूषण बनवाने के लिए गये तो तौलने में एक रत्ती कम तौला। सर्वज्ञ प्रभु ने चेतावनी दी कि "आँखन देखत बावरी रत्ती रत्ती खाय। आँख मिचे रत्ती कहा तौला हू रहि जाय।।" श्रीरामरायजी की अमोघ वाणी सुनकर इन्हें वैराग्य हो गया और पुत्रों को सब सौंपकर बोले-ये आभूषण वृन्दावन भिजवा देना और मुझे मरा हुआ समझना। श्रीरामरायजी की शरणागति स्वीकार की। श्रीराधामाधव की सेवा करते हुए 'वैराग्य विज्ञान' और 'श्रीकृष्णलीला' नामक ग्रन्थ बनाया। यथा-दोउ जन बातन बातन भूले। कहाँ जात हैं कहाँ पहुँच गये हँसि-हँसि लाजन झूले ।। मात यशोदा न्यौछावर करि राई नोन जू तूले। विष्णुवास नंद जू के मंदिर निरखि जुगल सब फूले ।।1।। जे धन कोश घरे ही रहे पशु पाश बँधे अपने-अपने।। नारि किवारि लौं देखत द्वार लौं मित्र मसान गये झपने।। देह सनेह भरी सो परी लकरी की चिता में लगी तपने ।। 'विष्णु के प्रान कृपा के निधान श्रीराधिकामाधवजू जपने । ।2।। श्रीविठ्ठलनाथजी के पास गोकुलमें बहुत दिन रहे। तत्पश्चात् श्रीराधामाधव ने स्वप्न देकर इन्हें वृन्दावन बुला लिया। श्रीयुगलदासजी-आप दिल्ली के कपूर खत्री थे। पहले निर्वाणपुरी से
संन्यास की दीक्षा ली थी। एक बार वृन्दावन के वनविहार में श्रीरामरायजी से मिलन हुआ। स्नान-भोजन के उपरान्त सतसंग चर्चा में निर्वाणपुरी ने अष्टांगयोग की चर्चा की। श्रीरामरायजी ने कहा- 'तत्कर्म हरितोषं यत्' अर्थात् जिससे हरि प्रसन्न हों वह सेवा ही कर्म है। उस कर्मयोग के आठ अंग हैं। यम-मंगला, नियम-शृंगार, आसन-गोपालदर्शन, प्राणायाम-राजभोग, प्रत्याहार-उत्थापन, धारणा इच्छाभोग, ध्यान-संध्या, समाधि-शयन भोग। भगवान भोक्ता हैं शेष सभी जीव भोग्य हैं। ऐसे सतसंग से प्रभावित होकर निर्वाणपुरी और कपूरजी दोनों रह गये। श्वास रोग से निर्वाणपुरीजी वृन्दावन रज को प्राप्त हो गये और कपूरजी श्रीरामरायजी के शिष्य बन गये। आपने 'भक्तियोग' और 'योग कल्पवल्ली' नामक दो ग्रन्थ रचे। ये निर्गुण योगाभ्यास छोड़कर श्रीराधामाधवजी की सेवा करने लगे। श्रीरामरायजी ने इन्हें सोहनी की उत्तम सेवा सौंपी।
गो. श्रीराधिकानाथजी प्रभु श्रीरामरायजी के लघुभ्राता गो. श्रीचन्द्रगोपालजी के पुत्र श्रीराधिकानाथजी थे। मंगला आरती के बाद श्रीचन्द्रगोपालजी 'माखन लो, माखन लो' कहकर इन्हें बुलाते थे इसलिए इनका एक नाम माखन प्रभु पड़ गया। राधिकानाथ, राधाप्रिया एवं श्यामासखी ये चार नाम इनके प्रसिद्ध हुए। इनकेमें बहुत दिन रहे। तत्पश्चात् श्रीराधामाधव ने स्वप्न देकर इन्हें वृन्दावन बुला लिया।
श्रीयुगलदासजी-आप दिल्ली के कपूर खत्री थे। पहले निर्वाणपुरी से संन्यास की दीक्षा ली थी। एक बार वृन्दावन के वनविहार में श्रीरामरायजी से मिलन हुआ। स्नान-भोजन के उपरान्त सतसंग चर्चा में निर्वाणपुरी ने अष्टांगयोग की चर्चा की। श्रीरामरायजी ने कहा- 'तत्कर्म हरितोषं यत्' अर्थात् जिससे हरि प्रसन्न हों वह सेवा ही कर्म है। उस कर्मयोग के आठ अंग हैं। यम-मंगला, नियम-श्रृंगार, आसन-गोपालदर्शन, प्राणायाम-राजभोग, प्रत्याहार-उत्थापन, धारणा इच्छाभोग, ध्यान-संध्या, समाधि-शयन भोग। भगवान भोक्ता हैं शेष सभी जीव भोग्य हैं। ऐसे सतसंग से प्रभावित होकर निर्वाणपुरी और कपूरजी दोनों रह गये। श्वास रोग से निर्वाणपुरीजी वृन्दावन रज को प्राप्त हो गये और कपूरजी श्रीरामरायजी के शिष्य बन गये। आपने 'भक्तियोग' और 'योग कल्पवल्ली' नामक दो ग्रन्थ रचे। ये निर्गुण योगाभ्यास छोड़कर श्रीराधामाधवजी की सेवा करने लगे। श्रीरामरायजी ने इन्हें सोहनी की उत्तम सेवा सौंपी।.गो. श्रीराधिकानाथजी प्रभु श्रीरामरायजी के लघुभ्राता गो. श्रीचन्द्रगोपालजी के पुत्र श्रीराधिकानाथजी थे। मंगला आरती के बाद श्रीचन्द्रगोपालजी 'माखन लो, माखन लो' कहकर इन्हें बुलाते थे इसलिए इनका एक नाम माखन प्रभु पड़ गया। राधिकानाथ, राधाप्रिया एवं श्यामासखी ये चार नाम इनके प्रसिद्ध हुए। इनके काव्यों में चारों नामों की छाप मिलती है। एक बार श्रीरामरायजी भगवान को भोग धरकर जगमोहन में बैठकर भागवतजी का पाठ करने लगे। सात वर्षीय राधिकानाथजी भी उनके साथ कंठस्थ पाठ करने लगे। इससे सभी को आश्चर्य और हर्ष हुआ। किसी की नजर न लग जाये इसलिए श्रीचन्द्रगोपालजी ने कहा कि पाठ में विक्षेप मत करो। भगवान भोग आरोग रहे हैं तो ध्यान करो। ध्यान के पश्चात् श्रीराधिकानाथजी बोले-कढ़ी में लवण नहीं है। किसी ने बालक की बात पर ध्यान नहीं दिया लेकिन जानकर श्रीरामरायजी ने परम्परागत श्रीगोपालमंत्र की दीक्षा देकर वैष्णव धर्म की
जब सभी लोगों ने प्रसाद ग्रहण किया तो अलोनी कढी पाकर आश्चर्य करने लगे।
श्रीरामरायजी ने गोदी में बैठाकर राधिकानाथ से पूछा तुम्हें कैसे पता चला कि कढ़ी
में लवण नहीं है। इन्होंने बताया कि ध्यान में श्रीजी ने मुझे अधरामृत प्रसाद दिया।
तभी से इन्हें अन्तरंग श्यामा सखी कहने लगे। गुरुकृपा से इनकी अन्तरगति श्रीप्रभु
में पग गई। श्रीगौरांग महाप्रभु और बल्लभाचार्यजी की इनके ऊपर विशेष कृपाशिक्षा दी। स्वतः इनके अन्दर सेवा के भाव प्रगट होने लगे। पिता के अधूरे ग्रन्थ पूरे किये। आदि वाणी गौर गौड़ीय महावाणी की टीका समाप्त की। आपके द्वारा रचित संस्कृत में सेवापत्र हैं। ब्रजभाषा में श्रीराधासुधानिधि की टीका सवैया छन्दों में हैं। रसबिन्दु, प्रेमसम्पुट और सेवा प्रणालिका आदि ग्रन्थ भी आपने ब्रजभाषा में लिखे। पद-प्रेमरस सर्व रसन सिरताज। जात पाँत कुल कान न देखै मेटै जग की लाज।। पढ़े न मिलै न मिलत पढ़ाये चमकत जैसे गाज। तीन लोक लाखन जन्मन धरि फिरी सकल बेकाज ।। जा तन उमगत अवगति की गति सो तन साजे साज। श्रीचैतन्य महाप्रभु वितरत अटल विश्व को राज।। श्रीबल्लभ विट्ठल गोकुलपति गिरिधर रति सम्राज। माखन को यह ही माखन है अन्य छाछ जल मॉज । ।1।। श्रीशिव औ सनकादिके ध्यान न आवै जोई ब्रजराज दुलारी। श्रीवृषभानुसुता बसनांचल पौन के पर्श भयौ मतवारी।। मानत धन्य कृतार्थ महा निजु जीवन कों मधुसूदन प्यारौ। श्यामा के धाम सु रावल ग्राम दिशा को प्रनाम किए सुख भारौ।।2।।श्रीकिशोरदासजी-चित्तौड़ के पास एक साधू स्थान के महन्त श्रीबल्लभदासजी ने एक अष्टादश वर्षीय गौड़ ब्राह्मण को शिष्य बनाकर किशोरदास नाम रखा। महन्त के मरने के बाद धन-यौवन के अहंकार से किशोरदास बहुत कामुक हो गये। किसी के समझाने से नहीं माने। श्रीरामरायजी वहाँ पधारे तो दर्शनार्थियों की भीड़ उमड़ पड़ी। लोगों को उपदेश दिया। लोगों ने श्रीकिशोरदासजी की सारी बात बताई। साधु स्थान की रक्षा के लिए श्रीरामरायजी ने किशोरदास को बुलवाया लेकिन नहीं आगे और बोले ऐसे साध नित्य आते रहते है। उसी रात्रि में किशोरदासजीको हैजा हो गया। किसी उपचार से लाभ नहीं हुआ तो किशोरदासजी ने कहा-वृन्दावन के सन्त को बुलाओ। श्रीरामरायजी कृपा करके पधारे और भगवच्चरणामृत दिया।
लोगों से बोले इन्हें चरणामृत के अतिरिक्त आज कुछ भी नहीं देना। श्रीरामरायजी चलने के लिए तैयार हुए तो किशोरदासजी ने प्रार्थना की कि आप कृपा करके रुकें।
प्रभुजी स्वस्थ्य होने तक रुके रहे। तत्पश्चात् किशोरदासजी ने गुरुदेव से शिक्षा दीक्षा
लेकर वृन्दावन वास की इच्छा प्रगट की। श्रीरामरायजी ने पंचायत को मन्दिर की
सेवा सौंपकर अपने साथ वृन्दावन ले आये। दोहा, सवैया, चौपाई आदि छन्दों में
आपने एक 'काम कलेवर' नामक ग्रन्थ की रचना की जिसमें आप बीती काम गाथा
गाई। दोहा-श्रीगुरुदेव दयाल की चरण कमल रज पाइ। मैल मजे मन के सकल मिले गोवर्धन राइ।।
मनहीं मन यह सोच तौ तिया तीर भरमार। काहू के कर होयगो मेरो हू उद्धार।। सो विपदा
इकरात में रामराय गुरुराय। हरि लीनी दीनी घुटी दास किशोरर्हि प्याय ।। नाम वृन्दावन श्याम
वृदावन धाम वृन्दावन वास करायौ। वेद पुरान निदान न जानत सो रसपान महान पिवायौ।।राधिकामाधव सेवा मिली मन मेवा मिली हिय टेवा बसायौ। 'दास किशोर' निराश की ओर सों जोर कियौ अभिलाष पुरायौ।।2।।श्रीकेशवदासजी-आप ब्रज में करहला ग्राम के निवासी एवं अहीर कुल के बालक थे। किसी चेटकी से यक्षिणी की सिद्धि प्राप्त हो गई जिससे चमत्कार दिखाकर लोगों को प्रभावित कर लेते थे। गुरुस्थान लाहौर में रहने लगे। श्रीरामरायजी की पितृ भूमि लाहौर थी। बहुत से श्रीरामरायजी के भी सेवक चेटक देखकर उससे प्रभावित हो चुके थे। इसलिए कुछ सेवकों ने वृन्दावन में आकर श्रीरामरायजी से निवेदन किया कि लाहौर में वैष्णवधर्म लोप होता जा रहा है उसकी रक्षा करो। श्रीरामरायजी लाहौर गये और केशवदासजी के निवास स्थान के बगल में अपने सेवक के यहाँ रुके। इनके प्रभाव को देखकर केशवदास ने संदेशा भेजा कि धनादि जो चाहे मुझसे ले जाये और लाहौर छोड़कर अन्यत्र चले जायें। श्रीरामरायजी ने कहा अब तुम्हारा चमत्कार नहीं चलेगा, जो तुम करना चाहो कर सकते हो। केशव ने यक्षिणी को प्रेरित किया कि रामराय को पकड़कर मेरे पास ले आवे। यक्षिणी के आने पर श्रीरामरायजी ने सन्ध्या पात्र से जल लेकर उसके ऊपर छिड़क दिया वह जलकर चिल्लाने लगी और रक्षा के लिये प्रार्थना करने लगी। श्रीरामरायजी ने कहा-पहले तुम केशवदासजी की चोटी पकड़कर मेरे पास ले आओ फिर मैं तुझे मुक्त कर दूँगा। उसने ऐसा ही किया। केशव की हालत देखकर श्रीरामरायजी को दया आ गई और उसे शिक्षा-दीक्षा देकर वैष्णव बना दिया तथा वैष्णव धर्म की पताका फहराई। कृपा करके केशवदास को वृन्दावन लेकर आये। केशवदासजी ने छः ग्रन्थ की रचना की। गुरुपूर्णिमा, वैष्णव भेद, भक्त्तिवर्द्धिनी, लोकदीपिका, क्रोध क्रूरता और तत्वत्रयी। दोहा- "लोम भजन को कीजिये, मोह मधुर हरिनाम। ताके मद छाक्यौ रहै शोक भाव विन काम ।। क्रोध करत तामस बने क्रोधीजन चण्डाल। हरि गुरु को सोहै नहीं भक्ति विमुख विकराल ।। तामस देवी देवकी सेवा क्रोध बढ़ाय। अन्न तामसी जो भखे सो तामस ह्वै जाय।।"
श्रीमनोहरदासजी-आप पटना के रहने वाले थे। कलवारो (जायसवाल) में सबसे बड़े धनी-मानी थे। चार पुत्र नौ पौत्र और अनेक दौहित्र एवं भाई बन्धु थे। इन्हें धन-कुटुम्ब का बड़ा भारी मद था। कोई भी साधु-सन्त इनके द्वार पर जाते तो गाली देता था। एक बार श्रीरामरायजी श्रीजगन्नाथजी के दर्शन के लिए पधारे तो पटना में पचास वैष्णवों के साथ विश्राम किया। एक दिन एक भावुक निम्बार्कीय सन्त गोपालदासजी मनोहरदास के द्वार पर पहुँच गये। उसने गाली सुनाना प्रारम्भ कर दिया। सन्त ने सोचा कि अच्छे का सभी उद्धार करते हैं। ऐसे पतित का भी उद्धार होना चाहिए। श्रीगोपालदासजी ने श्रीरामरायजी से प्रार्थना किया। कृपा करकेश्रीरामरायजी मनोहरदासजी के घर पधारे। उस समय वेश्याओं का अश्लील नृत्य-गान हो रहा था, बड़ी भीड़ थी। गाली न देकर मनोहरदास ने कहा-वैठिये और नृत्य देखिये। इन्होंने कहा-तुम्हारी सभी जगह अपवित्र है। कहाँ बैठाइयेगा। उसने उपेक्षापूर्वक कहा-तुम्हारे सरीखे बाबा बहुत माँगने आते हैं। उसी समय मनोहरदास के बड़ी जोर से थप्पड़ लगा, कोई नहीं देख पाया, पगड़ी गिर गई। वह बेहोश हो गया। पुनः स्वस्थ होकर तुरन्त तखत बिछवाया और बैठाया। अपराध के लिए क्षमा माँगी। श्रीरामरायजी के कृपा से सब कुछ त्यागकर इनके साथ श्रीजगन्नाथपुरी गये और वहाँ से दर्शन करके वृन्दावन आ गये। मनोहरदासजी को सामग्री भण्डार की सेवा मिली। रसिकवंश वर्णन तथा गंगा-यमुना की स्तुति काव्य लिखकर श्रीमनोहरदासजी ने अपनी वाणी को पवित्र किया।श्रीलाखादासजी-आप लखीमपुर के राजा थे। कंजूस होने के कारण
आपका राज्य नष्ट हो गया और सपरिवार सोरोंजी में गंगा घाट में झोंपड़ी बनाकर निवास करने लगे। एकबार श्रीरामरायजी सोरों पधारे और इनकी झोंपड़ी के पास रुके। एक दिन लाखाजी ने इनके वस्त्र धोये और पुत्रों के द्वारा दूधपाक बनवाकर सेवा की। श्रीरामरायजी बहुत प्रसन्न हुए और इनकी दीनता, दरिद्रता देखकर आदेश दिया कि कल हम चले जायेंगे। तुम प्रातःकाल सामने वाले वटवृक्ष की जड़ खोदना तो तुम्हें धन मिल जायेगा। फिर खूब साधु ब्राह्मणों की सेवा करना। खोदने पर एक करोड़ धन की प्राप्ति हुई लेकिन धन में मतवाले होकर फिर कंजूस हो गया और साधु-ब्राह्मणों का तिरस्कार करने लगा। एक दिन श्रीरामरायजी परीक्षा के लिए ब्राह्मण का रूप धरकर इनके द्वार पर पहुँचे। लाखाजी लाठी लेकर मारने के लिए दौडे तो ये अन्तर्ध्यान हो गये। एक दिन लाखा रामलीला देखने के लिए घोड़ा गाड़ी में बैठकर मेला देखने गया। श्रीरामरायजी लाखा का रूप धरकर घोड़ा गाड़ी लेकर जल्दी घर आ गये तो पुत्रों ने कहा-इतनी जल्दी कैसे आ गये। इन्होंने कहा एक नकली ठग मेरा रूप धारणकर मेला में घूम रहा है। उसे घर में घुसने नही देना। लाखा जब घर लौट कर आया तो पुत्रों ने खूब पिटाई की और जंगल में फेंक आये। लाखाजी ने राजा के पास शिकायत की। राजा ने दोनों को बुलवाया। दोनों लाखा एक ही रूप के थे। न्यायाधीश आश्चर्य में पड़ गया कि कैसे न्याय करूँ। न्यायाधीश ने कहा कि जो घर का सही सही हिसाब बता देगा उसी को घर में रहने का अधिकार प्राप्त होगा। लाखा तो बता नहीं सका और समर्थ प्रभु लाखा रूपधारी श्रीरामरायजी ने सब कुछ सही-सही बता दिया। लाखा को कैदखाने में डाल दिया। अब उसे अपने गुरुदेव की याद आई। श्रीरामरायजी ने जाकर प्रगट होकर शिक्षा दी कि क्यातुम्हें इसीलिए धन दिया कि साधु-ब्राह्मणों का तिरस्कार करो? लाखाजी चरणों में पड़कर क्षमा माँगी और दीक्षा लेकर वैष्णव बन गये। सब कुछ छोड़कर प्रभु की सेवा में लग गये। इनके चार ग्रन्थ हैं-त्यागतरंग, उत्सवविलास, आचार्य चालीसा और सेवा सुख। पद "गुरु बिन कौन उधारे मोय। गुरु श्रीकृष्ण, गुरु श्रीराधा, गुरु उपासक जोय ।। गुरु वृन्दावन गुरु श्रीयमुना गुरु जयदेवहु सोय। रामराय गुरु कृपा ज्ञान भयौ 'लाखा' लख सब कोय।।"
श्रीमधुसूदनदासजी-आप काशी नरेश के कोषाध्यक्ष थे। सोमवती पर्व पर सपरिवार पंच गंगाघाट पर स्नान करने के लिये आये। मधुसूदनदासजी का पैर फिसल गया और गंगाजी में डूब गए। पास में श्रीरामरायजी भी स्नान कर रहे हैं। मधुसूदनजी की पत्नी ने श्रीरामरायजी को पड़कर कहा-आपने मेरे पति को धक्का दे दिया। इन्होंने कहा कि मैंने ऐसा नहीं किया है। साक्षी के रूप में श्रीगंगाजी एवं काशी श्रीविश्वनाथजी हैं। गंगाजी से साक्षी दिलाई स्वयं गंगाजी ने प्रगट होकर साक्षी दी। तत्पश्चात् दया करके गंगाजल से ही मधुसूदनजी को पुनः प्राणदान दिया। चमत्कार देखकर बहुत से आपके शिष्य बन गये। मधुसूदनजी भी विरक्त दीक्षा-शिक्षा लेकर वृन्दावन आ गए। आपने चार ग्रन्थ बनाये। श्रीकृष्ण लीला, स्वरूप परिचय, भक्ति वितान और कर्तव्य निर्णय। पद-भावत श्रीगिरिधारीजी की बतियाँ। जब बोलत तबरस की वर्षा बरसत हरसत छतियाँ।। कैसे लागत कटिधर कर को मनु निरतत बहु भर्तियाँ। मैंन सलोने बैन रसीले मोहत सुर मुनि मतियाँ। अंग-अंग सोहत सुघराई नवल लाल रति पतियाँ। कल न परत छिन भर बिन देखे रसिक राज रस गतियाँ।। गोल कपोल लोल दृग मोहन भुज दण्डन भर छतियाँ। 'मधुदासी' गुरु रामराय प्रभु कृपा कल्प नव लतियाँ।।
श्रीहरिदासजी पटेल-एक बार श्रीरामरायजी द्वारकाधीशजी के दर्शनार्थ
द्वारकापुरी पधारे। भोग अर्पण करके बाहर बैठे हुये थे। उसी समय भोजकट निवासी
हरिदास पटेल दर्शन करने आया लेकिन किसी पुजारी ने पुष्प मालादि कुछ भी नहीं
दिया तो अहंकार में भरकर बोला कि जब दक्षिणा लेने आओगे तब बताऊँगा।
श्रीरामरायजी ने पटेल को अपने पास बुलवाया लेकिन वह नहीं आया तब स्वयं गये।
इन्हें देखकर पटेल का क्रोध शान्त हो गया और क्षमा माँगने लगा। श्रीरामरायजी ने
आधा घण्टे तक स्वर्ण की मुहरों की वर्षा की और बोले पटेलजी ! जितना तुमने
पुजारियों को दक्षिणा दी है सो ले जाओ। पटेल की बहू कमला आदि सभी आश्चर्य
में पड़ गये और श्रीरामरायजी से शिक्षा-दीक्षा ग्रहण की। पटेल विरक्त दीक्षा लेकर सभी कुछ त्यागकर वृन्दावन आ गया। गुरु-कृपा
से दुर्लभ प्रभु प्रेस प्राप्त किया।गुजराती भाषा में इनके बहुत से पद हैं। यथा-हुँ हरिनो हरि छे मम रक्षक, एम भरोसो जाय नहीं। जे हरि कर से ते मम हित नं ए निश्चय बदलाय नहीं।। शक्ति छतां परमारथ थल थी पाछा पगला भराय नहीं। स्वार्थ तणां पण काम विषे कदी अधरम ने अचराय नहीं।।
श्रीतीर्थरामजी जोशी-एक बार श्रीरामरायजी सौराष्ट्र से ब्रज को पधार रहे थे। मार्ग में मारवाड़ के एक गाँव में विश्राम करने का विचार किया। सेवकों ने खोजकर बताया सबसे धनी-मानी तीर्थराम जोशी है। उसकी चौपाल ठहरने के लिए उत्तम है। सभी वैष्णव वहाँ पहुँच गये लेकिन कृपण होने के कारण तीर्थराम जोशी घर के भीतर चला गया। लोगों ने इनके उद्धार के लिये श्रीरामरायजी से प्रार्थना की। तब आपने तीर्थराम. जोशी को बुलाकर उपदेश दिया कि त्याग से शान्ति मिलती है। उसी समय इन्हें वैराग्य चढ़ गया और खेत से तीन लाख रुपये लाकर समर्पित कर दिया और सेवक बन गया। श्रीरामरायजी ने पचास हजार रुपये पंचायत को अतिथि अभ्यागतों की सेवा के लिए दिया और शेष धन तीर्थराम के पुत्रों को दे दिया। तीर्थरामजी श्रीरामरायजी के साथ वृन्दावन आ गये और ठाकुरजी की सेवा में जीवन को समर्पित कर दिया। तीरथरामजी ने गीता रहस्य, यमुनास्तवराज, ब्रजभाव माधुरी आदि ग्रन्थ लिखे। भक्त्तदाम गुणचित्रणी के अनुसार श्रीरामरायजी एक बार कुलग्राम में विराज रहे थे। आपकी महिमा का विस्तार देखकर ब्राह्मणों को अच्छा नहीं लगा। वे लोग आपसे शास्त्रार्थ करने लेंगे परन्तु सभी पराजित हो गए। जब द्वेषवश आपको रात में मारना चाहा तो उनकी शिर की पगड़िया गिर जाती। पुनः शिर में रखने पर भी गिर जाती। अपनी भूल स्वीकार करके श्रीरामरायजी से बैर भाव छोड़कर वे लोग भक्त बन गये।
जय गौर गदाधर।



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